एक और अहिल्या-7

(Ek Aur Ahilya- Part 7)

This story is part of a series:

“मेरी मंज़िल तो मेरे पास है लेकिन मेरी किस्मत में नहीं.”
“क्या मतलब?” मैं चौंका.

मैं वसुन्धरा की बात का मर्म समझ तो गया था लेकिन थोड़ा कंफ्यूज़ था. कुछ था जो मेरी जानकारी से बाहर था.
डगशाई पहुँच कर वसुन्धरा मुझे रास्ता बताती गयी और हम लोग एक घुमावदार और सुनसान सी सड़क के सिरे पर स्थित वसुन्धरा के कॉटेज पहुँच गए.

घड़ी में तब लगभग आठ बज़ रहे थे. तब तक बारिश भी हो बंद चुकी थी लेकिन तेज़ सर्द हवा चल रही थी. जैसे ही वसुन्धरा अपना बैग लेकर कार से उतरी तो मैंने कहा- अच्छा … वसुन्धरा जी!
“क्या मतलब?”
“मैं चलता हूँ वसुन्धरा जी! मैंने बहुत दूर जाना है.”
“फालतू बात मत कीजिये, अंदर चलिए, गीले कपड़े बदलिए, एक कप काफ़ी पीजिये, फिर चले जाइयेगा.”

बात तो वसुन्धरा ठीक ही कह रही थी. कपड़े बदलने जरूरी थे, गीले कपड़ों में मेरी हालात पहले ही पतली हो रही थी.
मैंने गाड़ी साइड में लगाई और कार में से अपना सूटकेस निकला और वसुन्धरा के पीछे-पीछे अंदर चला गया.

अंदर जा कर सूटकेस में से तौलिया, सूखे अंडर गारमेंट्स और दूसरा सूट निकला और बाथरूम में जा घुसा. अपने पहने हुए कपड़े उतार कर जैसे ही खूंटी पर टांगने लगा तो खूँटी पर पहले से ही टंगा वसुन्धरा का नाईट-गाउन नीचे गिर गया और नाईट-गाउन के नीचे टंगी कल की पहन कर उतारी हुई वसुन्धरा की काली ब्रा और साटन की जाली वाली काली पेंटी नुमाया हो गयी.

फ़ौरन ही मेरे लिंग में भयंकर तनाव आ गया. अचानक ही मुझे किसी प्रकार की जल्दी नहीं रही. वैसे तो वसुन्धरा से मुझे कुछ ख़ास उम्मीद नहीं थी लेकिन इंसानी ख़्वाहिशों और कल्पनाओं का कोई ओर-छोर तो होता नहीं.

मैंने वाशरूम में ही एक ज़ोरदार हस्तमैथुन करके अपने लिंग को खूब ठन्डे पानी से अच्छी तरह से धोया और फिर तौलिये के साथ अच्छे से सुखा कर, कपड़े बदल कर मैं कमरे में आया तो सामने मेज पर एक भाप उड़ाती कॉफ़ी का मग रखा था और टेबल से दूसरी ओर दोनों हाथों में कॉफ़ी का मग लिए, सोफे के ऊपर पाँव मोड़ कर शिफ़ौन की साड़ी में बैठी वसुन्धरा गहरी नज़रों से मेरी ओर देख रही थी.

मैंने अपने उतारे हुए गीले कपड़े पॉलिथीन में लपेट कर सूटकेस में रखे, जूते पहने, आकर टेबल पर से अपना कॉफ़ी का मग क़ाबू किया और वसुन्धरा के सामने वाले सोफा-चेयर पर बैठ गया.

“वसुन्धरा जी! आपने मेरे सवाल का जवाब नहीं दिया?”
“इतनी अच्छी शाम, इतना अच्छा साथ … आप कोई और बात कीजिये न प्लीज़! ” वसुन्धरा का मन नहीं था उस टॉपिक पर बात करने को और ऐसी बातों में ज़ोर-ज़बरदस्ती नहीं चलती.

“ओके! आप यहाँ अकेली रहती है, डर नहीं लगता?”
“खुद से क्या डरना! डर तो दूसरों से होता है.”
तौबा तौबा! हर बात घूम-फिर कर उसी दिशा में जा रही थी.

“वसुन्धरा जी …”
“राज … एक मिनट! आप मुझे बिना ‘जी’ के नहीं बुला सकते? मैं भी तो आप को बिना ‘जी’ के बुला रहीं हूँ.”
“कहने को तो मैं आप को ‘तू’ कह कर भी बुला सकता हूँ वसुन्धरा जी! लेकिन अभी आपने मुझे ऐसा अधिकार दिया नहीं है.”

“आप क्या जानो …” कहते कहते वसुन्धरा सोफे से उठी और टेबल पर अपना कॉफ़ी का मग रख कर टेबल की अर्धपरिक्रमा कर के एकदम मेरे सामने, मेरे पास आ खड़ी हुई. मैं हड़बड़ा कर काफ़ी का मग छोड़ कर सोफा-चेयर से उठ ख़ड़ा हुआ.

वसुन्धरा ने धीरे से मेरा हाथ अपने दोनों हाथों में लिया और बोली- मैंने अपने सारे अधिकार, सारे इख़्तियार, खुद मैं … मेरी जिंदगी और मेरी जिंदगी से बावस्ता सारे फ़ैसले और उन फैसलों के सारे नतीज़े … मैंने बहुत साल पहले आप के नाम कर दिये थे, बस! आपको बताया ही नहीं था. लीजिये! आज आपको बता भी दिया.” कहते-कहते वसुन्धरा की आँखों से मोती ढलकने लगे.

“वसुन्धरा …” मैं एकदम हक्का-बक्का सा रह गया. हे भगवान! ऐसी परिस्थिति की तो मैंने कल्पना भी नहीं की थी.
“वसुन्धरा! मत रोइये … प्लीज़!” मैंने जेब से रुमाल निकाल कर वसुन्धरा की दोनों आँखे पौंछी ही थी कि वसुन्धरा फिर से फफक पड़ी और इस बार तो जैसे वसुन्धरा के अंतर के सारे दर्द, सारी पीड़ायें आंसूओं के साथ ही निकल पड़ी.

मैंने बाएं हाथ से वसुन्धरा को अपने साथ सटा लिया और अपने बाएं कंधे पर उसका सर टिका कर पीछे से अपना दायां हाथ उसके सर पर फेरने लगा. मेरे साथ लिपटी वसुन्धरा ज़ार-ज़ार रोये जा रही थी और मैं कर्तव्यविमूढ़ सा उसके सर और पीठ को सहलाये जा रहा था. पंद्रह-एक मिनट बाद वसुन्धरा कुछ संयत हुई. अब रोना तो करीब-करीब बंद था, अलबत्ता कुछ सिसकियां सी बाक़ी थी. लगता था कि मुद्दत से अंदर रखा अवसाद आज बरसों बाद बाँध तोड़ कर आँसुओं के साथ बाहर निकला था.

“वसुन्धरा!” मैंने वसुन्धरा की पीठ सहलायी.
“आई एम् सॉरी …” कहते हुए वसुन्धरा मुझ से अलग़ हुई और बॉथरूम में जा घुसी.

करीब दस मिनट बाद वसुन्धरा बॉथरूम से बाहर निकली. उसने आँखों को पानी से साफ़ कर लिया था, मुंह-हाथ धो लिया था, बाल भी संवार लिए थे. जैसे घनघोर बारिश के बाद सारी प्रकृति निखरी-निखरी सी दिखती है वैसे ही अब वसुन्धरा निखरी-निखरी सी दिख रही थी. उसे देख कर मैं मुस्कुराया. वसुन्धरा के होंठों पर भी एक निर्दोष सी मुस्कान आयी.
“ये कॉफ़ी तो ठंडी हो गयी … मैं और बनाती हूँ.” इस से पहले मैं कुछ कहूं, वसुन्धरा पहले ही किचन में जा चुकी थी.

बाहर बारिश फिर शुरू हो गयी थी. मैंने घड़ी देखी, पौने-नौ बजने को थे और मुझे अभी डेढ़ सौ-पौने दो सौ किलोमीटर और दूर जाना था. लेकिन कॉफ़ी तो अभी भी बन कर नहीं आयी थी. दस-एक मिनट बाद वसुन्धरा ट्रे में भाप उड़ाती कॉफ़ी के दो मग ले कर अंदर आयी.

अब वसुन्धरा खूब सयंत और प्रफुल्लित दिख रही थी. मैंने उठकर कॉफ़ी का मग पकड़ा, अब के वसुन्धरा मेज़ के परली तरफ़ बैठने की जग़ह मेरे बाएं हाथ लंबरूप रखी कुर्सी पर बैठ गयी.
“जी! अब कहिये. ” बैठते ही वसुन्धरा ने कहा.
मैं सिर्फ मुस्कुराया.
“बोलिये राज! “.
“क्या बोलूं?” मैंने काफ़ी का सिप लिया. कॉफ़ी वाक़ई बहुत अच्छी बनी थी.
“आप कुछ पूछ रहे थे?”
“पर आपने तो मुझे चुप करवा दिया था.”

” राज! आप को सारी बात पता है क्या?”
“डिटेल में तो नहीं … पर इतना पता है कि सालों पहले आपके रिश्ते की बात चली थी कहीं और आपको वो लड़का बेहद पसंद भी था लेकिन आपके पापा को आर्मी ऑफिसर दामाद ही चाहिए था, इसलिए वहां आपका रिश्ता नहीं हो सका. और इस बात से आप अपने पापा से नाराज़ हो कर उनसे बात नहीं करती, अलग रहती हैं, शादी ना करने की ज़िद पर अड़ी हैं.”
“और?”
“बस यही.”
“हूँ!! मेरा भी यही ख़्याल था.”

“अच्छा वसुन्धरा! उस लड़के का क्या हुआ? सॉरी टू आस्क … ऐसा क्या था उस लड़के में?”
“उसकी तो कहीं और शादी हो गयी … बरसों पहले ही. और क्या था उस में … यह मैं कैसे बताऊं?”
“फिर भी?”
“राज! जब कोई किसी से प्यार करता है तो कोई हिसाब-क़िताब लगा कर नहीं करता.”

“लेकिन अब आगे का क्या सोचा है?”
“क्या फायदा सोचने का! जो सोचा था, वो तो हुआ ही नहीं.”
“उसको आपके बारे में पता है?” मैंने अपनी कॉफ़ी का आँखिरी घूंट भरा.
“न! उसको तो आजतक कानोंकान भी खबर नहीं हुई कि कोई बर्बाद हुआ जा रहा है उसके पीछे.” वसुन्धरा की आवाज़ में फिर दर्द छलक आया था.
“लकी मैन! ऐसा बेलौस, बिना शर्त का प्यार कहाँ नसीब होता है हर किसी को? वैसे था कौन … वो खुशनसीब?”
“आपको सच में नहीं पता?”
“कसम ले लो.”

मैंने अपना खाली कॉफ़ी का मग मेज़ पर रखा, अपना सूटकेस अपने हाथ में थामा और सोफे से उठ कर खड़ा हो गया.

वसुन्धरा ने अचानक ही नज़र झुका ली और चुप सी हो गयी. अचानक ही वातावरण बहुत बोझिल सा हो गया. बाहर बारिश की टपाटप बूंदें टीन की छत पर शोर मचा रही थी.
अचानक ही मुझे अपने ही दिल की धड़कन साफ़-साफ़ सुनाई देने लगी और मुझे एक अनजानी सी बेचैनी महसूस होने लगी. मुझे अंदेशा हो रहा था कि वसुन्धरा जरूर कुछ नाक़ाबिले-यक़ीन कहने वाली थी.

तभी वसुन्धरा ने अपना मुंह ऊपर किया और सीधे मेरी आँखों में आँखे डाल कर बोली- वो आप थे … राज!
घड़..घड़..घड़ … घड़ाम … घड़ाम! जितनी ज़ोर से बाहर बिजली ग़रज़ी, उस से कई गुना ज़्यादा मेरे अंदर कड़की!

कुछ पल को तो मेरे मस्तिष्क ने काम करना बंद कर दिया था. तो ये बात थी. अब जा के सारी तस्वीर शीशे की तरह साफ़ हुई. वसुन्धरा का अपने माँ-बाप से इतर रहना, उसके व्यक्तित्व में समायी तमाम बत्तमीज़ी, दबंगई, ख़ुद-पसंदगी और उसके तनहाई-पसंद होने का और मेरे प्रति अनबूझे अनुराग़ का और अभी तक अविवाहित होने का कारण उसके पिता जी का उसकी मुझसे शादी के ख़िलाफ़ लिया गया एक फ़ैसला ही था.

हे भगवान्! कोई खुद को इतने साल मुतवातिर कैसे सज़ा दे सकता है? क्यों वसुन्धरा ने खुद को यह शाप दे दिया? इतने सालों से वसुन्धरा एक स्त्री से पत्थर बनी बैठी थी और इस सारे घोटाले की जड़ में था मैं … राजवीर! और मुझे इस का इल्म ही नहीं. अहिल्या को शापमुक्त करने तो स्वयं भगवान् राम आ गए थे. अहिल्या को सतयुग में मिले शाप से मुक्ति देने के लिए अपने प्रचण्ड पराक्रम से त्रेता-युग को द्वापरयुग से पहले खींच लाये थे.

लेकिन मैं तो एक तुच्छ मानव था और वसुन्धरा को देने के लिए मेरे हाथ और मेरा दामन, दोनों खाली थे. मैं आज दो बच्चों का बाप था लेकिन वसुन्धरा आज भी उसी कालखण्ड में ही जी रही थी, जब उसकी मुझ से रिश्ते की बात चली थी.
वसुन्धरा के लिए तो जैसे समय खड़ा ही हो गया था.

पर ये गलत था … सरासर गलत! जिंदगी में … हादसे हो जाते हैं लेकिन इस का ये मतलब तो हर्गिज़ नहीं है कि कोई जीना ही बंद कर दे? मेरे लिए … मेरे कारण वसुन्धरा ने खुद को फ़ना के धारे तक पहुंचा लिया था. अपनी इक-तरफ़ा मुहब्बत में उस ने अपनी जिंदगी के क़रीब चौदह … चौदह सुनहरे साल बर्बाद कर लिए थे.
चौदह साल! भगवान् राम चंद्र जी को भी तो चौदह साल का बनवास हुआ था लेकिन राम जी के साथ तो माता सीता और भैया लक्ष्मण भी थे पर इस प्रेम-पथ पर इस तन्हा विरहन के साथ तो कोई भी नहीं था, वो भी नहीं जिस के प्रेम में ये सब हुआ.

उफ़! कितना सहा था इस प्रेम की मारी ने!
वसुन्धरा! तू है तो तो बेपनाह प्यार के काबिल लेकिन मैं एक शादीशुदा, बाल-बच्चेदार आदमी, तेरे प्यार का जबाब प्यार से नहीं दे सकता.

वसुन्धरा! आज तुम बहुत ऊपर उठ गयी, मैं तो किंचित शूद्र प्राणी मात्र हूँ लेकिन तेरी ज़ुस्तजू ने एक ज़र्रे को आफ़ताब बना दिया, एक अदना को आला कर दिया. मैं तेरे प्यार को तस्लीम करके उसे सिर्फ इज़्ज़त दे सकता हूँ, तेरे आगे नतमस्तक हो सकता हूँ … बस!!!
मेरा सूटकेस मेरे हाथ से छूट गया.

” हे भगवान्! इतना ज़ुल्म!!! … वसुन्धरा! मुझे पता नहीं था, कसम ले लो … चाहे! मुझे इस बारे में सच में कोई इल्म नहीं था. नहीं तो … नहीं तो!” कहते कहते मेरी खुद की आँखें तरल हो उठी. वसुन्धरा लपक कर मेरे पास आयी और अपने दोनों हाथों से मेरा हाथ पकड़ कर बोली- न न! आपका तो इसमें रत्ती भर भी कसूर नहीं, आप अपना मन भारी न करें.
मेरी आँखों से दो मोती वसुन्धरा के हाथ के पृष्ठ भाग पर टपक गए.

“बस राज बस! मेरे लिए आपकी आँखों में आंसू आये, मैंने दोनों जहां पा लिए. मेरे प्यार ने मुझे स्वीकार कर लिया, अब चाहे मुझे मौत भी आ जाए तो गम नहीं. इस घड़ी को दिल में संजो कर के तो मैं सदियों-सदियों नर्क की आग में ख़ुशी-ख़ुशी जल जाऊं.”

कहते-कहते वसुन्धरा की आँखों से भी गंगा-जमुना बह निकली. भावावेश में मैंने वसुन्धरा के हाथों से अपना हाथ छुड़ा कर उसको अपने आलिंगन में ले लिया और वसुन्धरा भी बेल की तरह मुझमें सिमट गयी.

कहानी जारी रहेगी.
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