लिंगेश्वर की काल भैरवी-2

(Lingeshawar Ki Kaal Bhairavi-2)

This story is part of a series:

(एक रहस्य प्रेम-कथा)

लिफ्ट से नीचे आते मैं सोच रहा था कि ये औरतें भी कितनी जल्दी आपस में खुल कर एक दूसरे से अपने अंतरंग क्षणों की सारी बातें बता देती हैं।

मधु मेरे सामने तो लंड, चूत और चुदाई का नाम लेते भी कितना शर्माती है और इस जीत रानी (रूपल) को सब कुछ बता दिया। ओह … मधु मेरे मन की बात जानती तो है। चलो कोई अच्छा मौका देख कर इस बाबत बात करूंगा।

जब मैं बाज़ार से लौट कर आया तो हाल में इक्का दुक्का आदमी ही थे। एक मेज़ पर एक फिरंगी लड़की और काला हब्शी बैठे कोल्ड ड्रिंक पी रहे थे। फिरंगन ने पतली गोल गले की शर्ट और लाल रंग की पैंटी डाल रखी थी जिस में उसकी चूत का उभार और कटाव साफ़ नज़र आ रहा था उसकी गोरी गोरी पुष्ट जांघें इतनी कातिलाना थी कि मैं उनको देखने का लोभ संवरण नहीं कर पाया।

साले इस काले हब्शी ने भी क्या किस्मत पाई है मैंने मन में सोचा। जीत कई बार कहता है गोरी की गांड और काली की चूत बड़ी मजेदार होती है। साली ये फिरंगी लड़कियां तो गांड भी आसानी से मरवा लेती हैं इस 6.5 फुट के लम्बे चौड़े काले दैत्य की तो पौ बारह ही हो गई होगी। अब आप मेरी हालत का अंदाजा अच्छी तरह लगा सकते हैं।

थोड़ी दूर एक 40-42 साल का लम्बे बालों वाला दुबला पतला सा बढ़ऊ बैठा कॉफ़ी पी रहा था। उसने अचकन और चूड़ीदार पाजामा पहना था। माथे पर तिलक लगा था और सिर पर हिमाचली टोपी पहन रखी थी। मुझे भी चाय की तलब हो रही थी। सच पूछो तो चाय तो बहाना था मैं तो उस फिरंगन की गोरी गोरी जांघें और भरे नितम्बों को देखने के चक्कर में रुका था।

मैं उस बढ़ऊ के साथ वाली मेज पर बैठ गया। यहाँ से उसे अच्छी तरह देखा जा सकता था। बढ़ऊ मुझे ही घूरे जा रहा था। उसकी आँखों में अजीब सा आकर्षण था। जब मेरी आँखें दुबारा उस से मिली तो मैंने पता नहीं क्यों उसे अभिवादन कर दिया। उसने मुस्कुराते हुए अपने पास ही बैठ जाने का इशारा किया तो मैं उठ कर उसके पास ही आ बैठा।

मैंने पास आकर उसका अभिवादन किया,”मुझे प्रेम चन्द्र माथुर कहते हैं।”

“मैं नील चन्द्र राणा हूँ भौतिक विज्ञान का प्रोफ़ेसर हूँ। पहले पठानकोट में था, आजकल अहमदाबाद आ गया हूँ। हमारे पूर्वज राजस्थान से पलायन करके हिमाचल में आ कर बस गए थे।” बढ़ऊ ने एक ही सांस में सब बता दिया।

“धन्यवाद प्रोफ़ेसर साहब !”

“क्या आप यहाँ पहली बार आये हैं ?” उसने पूछा।

उसकी संतुलित भाषा और सभ्य लहजा सुनकर मैं बड़ा प्रभावित हुआ। मैंने कहा “जी हाँ मैं और मेरी पत्नी पहली बार ही आये हैं।”

“ओह… अति उत्तम … यह नव विवाहित युगलों के लिए बहुत दर्शनीय स्थल है। मैं भी अपनी धर्म पत्नी और पुत्री के साथ पहली बार ही आया हूँ पर आपकी तरह नव विवाहित नहीं हूँ।”

हम दोनों ही हंस पड़े। ओह… यह प्रोफ़ेसर तो रोमांटिक बातें भी कर लेता है? मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ। उसने बात जारी रखी “खजुराहो के मंदिरों के अलावा यहाँ से कोई 40-50 की.मी. दूर एक बहुत अच्छा स्थान और भी है।”

“हूँ ?”

“लिंगेश्वर और काल भैरवी मंदिर और साथ ही बने रंगमहल (जयगढ़) के बारे में तो आपने सुना होगा ?”

“नहीं… मैंने बताया ना कि हम यहाँ पहली बार आये हैं, मुझे यहाँ के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है। मैंने अजयगढ़ और कालिंजर दुर्ग के बारे में इन्टरनेट पर कुछ जानकारी देखी थी। पर लिंगेश्वर के बारे में तो …… नहीं सुना ? आपने तो देखा होगा कृपया बता दें।”

“ओह …” बढ़ऊ इतना बोल कर कुछ सोच में पड़ गया। मैं बेचैनी से पहलू बदल रहा था। थोड़ी देर बाद उसने अपनी चुप्पी तोड़ी “क्या तुम परा-भौतिक विज्ञान पर विश्वास करते हो ?”

अजीब सवाल था। “प … परा … वि … ज्ञान… जी नहीं मैंने इसके बारे में नहीं सुना ?” मैंने कहा।

“हूँ …” उसके मुँह से केवल इतना ही निकला। यह बढ़ऊ तो रहस्यमयी लगने लगा था।

“देखो विज्ञान की तीन शाखाएं होती हैं- रसायन, जैव और भौतिक विज्ञान। भौतिक विज्ञान में पदार्थ, ब्रह्माण्ड और खगोल विज्ञान शामिल हैं। जैव और भौतिक विज्ञान दोनों को मिला कर एक और विज्ञान है जिसे प्रचलित भाषा में अध्यात्म कहा जाता है।
अधिकतर लोगों तो यही सोचते और समझते हैं कि अध्यात्म और विज्ञान विरोधाभासी हैं और दोनों अलग अलग धाराएं हैं। पर वास्तव में ये एक ही हैं।

भौतिक विज्ञान कहता है कि यह सारा ब्रह्माण्ड किसी एक ही पदार्थ से बना है अध्यात्म के अनुसार इस पूरी सृष्टि को परमात्मा ने रचा है। भौतिक विज्ञान कहता है कि कोई भी पदार्थ या अपदार्थ कभी नष्ट नहीं हो सकता बस उसका स्वरुप या स्थान परिवर्तित हो जाता है।
जब कि अध्यात्म में इसे आत्मा कहा जाता है जो अजर, अमर और अविनाशी है जो कभी नहीं मरती। वैज्ञानिक शोध कार्य और परीक्षण द्वारा खोज करते हैं जबकि योगी साधना और तपस्या से सिद्धि प्राप्त करते हैं। दोनों एक ही कार्य करते हैं बस माध्यम और ढंग अलग होता है।”

“हम परा-विज्ञान की बात कर रहे थे। चलो एक बात बताओ ? कई बार तुमने देखा होगी कि हम किसी व्यक्ति को जब पहली बार मिलते हैं तो वो पता नहीं हमें क्यों अच्छा लगता है। हम उससे बात करना चाहते हैं, उसकी निकटता चाहते हैं और दूसरी ओर किसी व्यक्ति को देख कर हमें क्षोभ और चिढ़ सी होती है जबकि उस बेचारे ने हमारा कुछ नहीं बिगाड़ा होता। ऐसा क्यों होता है ? अच्छा एक बात और बताओ तुम मुझे नहीं जानते थे, ना कभी पहले मिले थे फिर भी तुमने मुझे अभिवादन किया ? क्यों ?”

“वो… वो… मैं … ?” मुझे तो कोई जवाब ही नहीं सूझा।

“मैं समझाता हूँ !” प्रोफ़ेसर ने गला खंखारते हुए कहा,”हमारे इस शरीर से कुछ अदृश्य किरणें निकलती रहती हैं जो हमारे शरीर के चारों ओर एक चक्र (औरा) बनाये रहती हैं। यदि दोनों व्यक्तियों की ये अदृश्य किरणें धनात्मक हुई तो वो एक दूसरे को अच्छे लगेंगे अन्यथा नहीं। जिसका यह चक्र जितना अधिक विस्तृत होगा उसका व्यक्तित्व उतना ही विशेष होगा और वह सभी को प्रभावित कर लेगा।”

“भौतिक विज्ञान के अनुसार जब कोई पदार्थ नष्ट नहीं हो सकता तो फिर हमारी स्मृतियाँ और विचार कैसे नष्ट हो सकते हैं। वास्तव में मृत्यु के बाद हमारे भौतिक शरीर के पञ्च तत्वों में मिल जाने के बाद भी हमारी स्मृतियाँ और आत्मा किसी विद्युत और चुम्बकीय तरंगों या अणुओं के रूप में इसी अनंत ब्रह्माण्ड में विद्यमान रहती हैं। श्रीमद् भगवद् गीता के अनुसार भी वही अपदार्थ, अणु या अदृश्य तरंगें (आत्मा) अपने अनुकूल और उपयुक्त शरीर ढूंढ कर नया जन्म ले लेता है। हम सबका पता नहीं कितनी बार जन्म और मृत्यु हुई है।”

“हमारे इस भौतिक शरीर के इतर (परे) भी एक और शरीर और संसार होता है जिसे सूक्ष्म शरीर और परलोक कहते हैं। पुनर्जन्म, परा विज्ञान और अपदार्थ (एंटी मैटर) की अवधारणाएं भी इन्हीं सिद्धांतों पर आधारित हैं।”

“एक और बात बताता हूँ।” बढ़ऊ ने कहना जारी रखा।

“अपना पिछला जन्म और भविष्य जानने की सभी की उत्कट इच्छा रहती है। पुरातन काल से ही इस विषय पर लोग शोध कार्य (तपस्या) करते रहे हैं। उनकी भविष्यवाणियाँ सत्य हुई हैं। आपने भारतीय धर्मशास्त्रों में श्राप और वरदानों के बारे में अवश्य सुना होगा। वास्तव में यह भविष्यवाणियाँ ही थी।
उन लोगों ने अपनी तपस्या के बल पर यह सिद्धियाँ (खोज) प्राप्त की थी। यह सब हमारी मानसिक स्थिति और उसकी किसी संकेत या तरंग को ग्रहण करने की क्षमता पर निर्भर करता है। आध्यात्म में इसे ध्यान, योग या समाधी भी कहा जाता है।
इसके द्वारा कोई योगी (साधक) अपने सूक्ष्म शरीर को भूत या भविष्य के किसी कालखंड या स्थान पर ले जा सकता है और उन घटनाओं और व्यक्तियों के बारे में जान सकता है। आपने फ्रांस के नास्त्रेदमस की भविष्यवाणियों के बारे में तो अवश्य सुना होगा। आज भी ऐसा संभव हो सकता है।”

“क्या आप भी इनके बारे में जानते हैं ?” मैंने डरते डरते पूछा कहीं बढ़ऊ बुरा ना मान जाए।

प्रोफ़ेसर रहस्यमयी ढंग से मुस्कुराया और फिर बोला “देखो तुम शायद सोच रहे होंगे कि यह प्रोफ़ेसर भी भांग के नशे में गप्प मार रहा होगा पर इस सम्बन्ध में तो महान वैज्ञानिक आइन्स्टीन ने (जिसका सापेक्षवाद का सिद्धांत विज्ञान की दुनिया में मील का पत्थर है) अपने जीवन के अंतिम दिनों में (पिछली शताब्दी के 40 के दशक में) एक अविश्वसनीय और चमत्कारी खोज की थी ‘यूनिफाइड फ़ील्ड थ्योरी’। यह किसी पदार्थ को अदृश्य (अपदार्थ बना देना) कर देने का सूत्र था। उसे डर था कि कुछ लोग इसका गलत लाभ उठा सकते हैं इसलिए उसने इस सूत्र को गुप्त रखा।
पर सन 1943 में जब हिटलर विश्व विजय का सपना देख रहा था तब यह सूत्र अमेरिकी सरकार को देना पड़ा। लगभग उन्हीं दिनों उसने समय की गति को आगे पीछे करने का सूत्र भी खोज लिया था। यह इतनी रहस्यमयी खोज थी कि इसके द्वारा भूत या भविष्य के किसी भी काल खंड में पहुंचा जा सकता था।

यह अवधारणा गप्प नहीं वैज्ञानिक तथ्य है। यह सूत्र (फ़ॉर्मूला) भी उसने बहुत गोपनीय रखा था। अमेरिका के गृह मंत्रालय की फाइलों में आज भी उस खोज से सम्बंधित दस्तावेज पड़े हैं। अमेरिका सरकार ने उसे गुप्त और सुरक्षित रखा है। तुमने टाइम मशीन के बारे में तो अवश्य सुना और फिल्मों में देखा होगा। यह सब उसी सूत्र पर आधारित है।”

“गीता में बहुत से योगों के बारे में बताया गया है पर इन में कर्म, भक्ति और ज्ञान योग को विशेष रूप से बताया गया है। ज्ञान योग में ही एक शाखा ध्यान, समाधि, सम्मोहन और त्राटक की भी है। मैं तुम्हें एक अनुभूत प्रयोग करके दिखाता हूँ। तुम अपनी आँखें बंद करो और मैं जो कहूं उसे ध्यान से सुनो और वैसा ही विचार करो।”

प्रोफ़ेसर के कहे अनुसार तो मैंने अपनी आँखें बंद कर ली तो वो बोला,”प्रेम ! तुम एक नदी के किनारे खड़े हो। दूर पहाड़ों से आती इस नदी का जल देखो कितना निर्मल लग रहा है। इसकी बल खाती लहरें देखो ऐसे लग रही हैं जैसे कोई नवयुवती अपनी कमर लचका कर चल रही हो !”

मुझे लगा जैसे मैं सचमुच किसी नदी के किनारे ही खड़ा हूँ और मधु सफ़ेद पैंट पहने अपने नितम्बों को मटकाती नदी के किनारे चल रही है। ओह… यह तो कमाल था।

“अब अपनी आँखें खोल लो !”

मैंने अपनी आँखें खोल ली तो प्रोफ़ेसर ने पूछा,”तुमने कुछ देखा ?”

“हाँ सचमुच मुझे ऐसा लगा जैसे मैं नदी के किनारे खड़ा हूँ और उसकी बल खाती लहरों और साफ़ पानी को देख रहा हूँ। उस में चलती नाव और मछलियाँ भी मैंने देखी !” मैंने मधु वाली बात को जानबूझ कर गोल कर दिया।

“मेरे अनुमान है तुम इस सिद्धांत से सहमत हो गए हो ! वास्तव में हम जब अपनी सभी इन्द्रियों को नियंत्रित करके ध्यान पूर्वक किसी व्यक्ति, स्थान, घटना या कालखंड के बारे में सोचते हैं तो हमारे मस्तिष्क में वही सब अपने आप सजीव हो उठता है और हम वहीं पहुँच कर उसे देखने लग जाते हैं। इसे दिवा स्वप्न भी कहते हैं।
वास्तव में हम जो रात्रि में सपने देखते हैं या जो तुमने आँखें बंद करके अभी देखा या अनुभव किया वह सब कहाँ से आया था और अब कहाँ चला गया ? वास्तव में वह ‘अपदार्थ’ (एंटी मैटर) के रूप में कहीं ना कहीं पहले से विद्यमान था, अब भी है और भविष्य में भी रहेगा। यही ‘परा-विज्ञान’ है।”

“ओह … अद्भुत !…” मैं तो अवाक सुनता ही रहा।

मैं अपने भविष्य के बारे में कुछ जानना चाहता था। मैंने पूछा “प्रोफ़ेसर साहब एक बात बताइये- क्या आप हस्त रेखाओं के बारे में भी जानते हैं ?”

उसने मेरी ओर इस तरह देखा जैसे मैं कोई शुतुरमुर्ग या चिड़िया घर से छूटा जानवर हूँ। ओह … मुझे अब अपनी गलती का अहसास हुआ था। मैं बेतुका और बेहूदा सवाल पूछ बैठा हूँ।

प्रोफ़ेसर मुस्कुराते हुए बोला,”हाँ मैं हस्त रेखा और शरीर विज्ञान के बारे में भी जानता हूँ।”

“ओह … मुझे क्षमा करें मैंने व्यर्थ का प्रश्न पूछ लिया !”

“नहीं प्रेम कोई भी प्रश्न व्यर्थ नहीं होता। यह सब अवचेतन मन के कारण होता है। तुम संभवतः नहीं जानते हमें रात्रि में जो स्वप्न आते हैं वो सब हमारे अवचेतन मन में दबी-छिपी इच्छाओं का ही रूपांतरण होता है। तुमने हस्त रेखाओं के बारे में पूछा है तो तुम्हारे में कहीं ना कहीं कुछ पाने की अदम इच्छा बलवती हो रही है और तुम इन हस्त रेखाओं के माध्यम से यह जानने का प्रयास कर रहे हो कि वो कभी फलीभूत होंगी या नहीं ?”

ओह … यह प्रोफ़ेसर तो कमाल का आदमी है। यह सौ फ़ीसदी सत्य था कि उस समय मैं यही सोच रहा था कि क्या कभी मैं मधु के साथ वो सब कर पाऊंगा जो अभी थोड़ी देर पहले सत्यजीत अपनी पत्नी के साथ कर रहा था।

“वैसे तो प्रकृति ने किसी विशेष कारण से मानव की भविष्य को जानने की क्षमता (शक्ति) भुला दी है पर फिर भी बहुत कुछ बताया जा सकता है। वास्तव में तो हमारे वर्तमान के कर्म ही हमारे भाग्य या भविष्य का निर्माण करते हैं और उन्हीं कर्मों का प्रतिरूपण होते हैं। ओह … छोड़ो … लाओ तुम अपना दायाँ हाथ दिखाओ ?” प्रोफ़ेसर ने कहा तो मैंने अपना हाथ उसकी ओर बढ़ा दिया।

प्रोफ़ेसर ने मेरा हाथ अपने हाथ में पकड़ लिया और उसे थोड़ा सा फैला लिया और रेखाएं देखने लगा। कुछ देर वो देखता रहा और फिर रहस्यमयी ढंग से मुस्कुराया।

“प्रेम एक बात बताओ क्या तुम्हारे किसी अंग विशेष पर कोई तिल है ?”

अजीब सवाल था। हस्त रेखाओं की बात चल रही थी और यह पट्ठा तिल के बारे में पूछ रहा है। मैंने कहा “मेरे दाहिने होंठ पर तिल है और एक तिल पेट पर नाभि के पास भी है। और हाँ एक… और …” कहते कहते मैं रुक गया।

“संकोच मत करो बताओ और कहाँ पर है ?”

“मेरे गुप्तांग पर भी एक तिल है !”

“सही जगह बताओ … झिझको नहीं !”

“ओह … वो… दरअसल मेरे शिश्न के अग्र भाग (शिश्नमुंड) पर भी एक तिल है !” मैंने संकुचाते हुए कहा।

“अति उत्तम … क्या तुम्हारी धर्म पत्नी के भी किसी अंग पर कोई तिल है ?”

“मैंने ध्यान नहीं दिया ! क्यों ?” मैंने पूछा। मुझे पता है कि मधु की दाईं जांघ पर अन्दर की तरफ एक काला सा तिल है। मधु ने अपनी मुनिया के नीचे दोनों जाँघों पर मेहंदी से फूल बूंटे से बना रखे थे इसलिए पहले तो मेरा ध्यान नहीं गया पर परसों रात में मैंने जब उसकी मुनिया को जम कर चूसा था तब मेरी निगाह उस पर पड़ी थी। पर मैंने गोल मोल जवाब देना ही ठीक समझा।

“चलो कोई बात नहीं। तुम्हारे होंठ पर जो तिल है वो इस बात को दर्शाता है कि तुम्हें बहुत सी स्त्रियों का प्रेम तो मिलेगा पर वो सभी तुमसे बिछुड़ जायेंगी। तुम्हारे शिश्न के अग्र भाग पर जो तिल है वो इस बात का द्योतक है कि तुम बहुत रंगीन और स्वछन्द प्रवृति के व्यक्ति हो। इसे अन्यथा मत लेना मित्र। तुम ध्यान से देखना तुम्हारी पत्नी के जनन अंगों के आस पास भी इस तरह का तिल अवश्य होगा। प्रकृति ने सभी चीजें बड़ी रहस्यमयी ढंग से बनाई हैं।”

“ओह..” मैं तो हैरान हुआ मुँह बाए बस उसे देखता ही रह गया।

उसने मेरी अनामिका और तर्जनी अंगुली की ओर आती एक पतली सी रेखा की ओर इशारा करते हुए बताया कि यह जो रेखा बृहस्पति पर्वत से मिल रही है विद्या या ज्ञान की रेखा है। इसका अर्थ है कि तुम्हें उच्च शिक्षा प्राप्त करने का योग है। तुम जिस क्षेत्र में भी कार्य करोगे सफलता के उच्च शिखर पर पहुँचोगे। बड़े लेखक या कलाकार भी बन कर भी प्रसिद्धि प्राप्त कर सकते हो। हाँ तुम्हारा शुक्र पर्वत तो बहुत ही उभरा हुआ है। मुझे क्षमा करना तुम्हारे अपनी पत्नी के अलावा भी अन्य स्त्रियों से सम्बन्ध बनाने का योग है।”

हालांकि प्रोफ़ेसर धीरे धीरे बोल रहा था पर मैंने अपनी नज़रें इधर उधर दौड़ाई कोई और तो नहीं सुन रहा।

“मैंने देखा नहीं है पर मुझे विश्वास है कि तुम्हारी पत्नी भी बहुत सुन्दर होगी क्योंकि तुम्हारी हृदय रेखा जिस तरह से चाँद (अर्क) बना रही है उस से तो यही पता चलता है। तुम्हें दो पुत्रों का भी योग है।” कहते हुए प्रोफ़ेसर हंसने लगा।

मेरे पुराने पाठक जिन्होंने “मेरी अनारकली” और “नन्दोईजी नहीं लन्दोईजी” नामक कहानियां पढ़ी हैं वो इन पुत्रों के बारे में जानते हैं। ओह… यह तो बाद की बात थी पर उस समय मुझे विश्वास नहीं हो रहा था। पर आज जब सोचता हूँ तो मुझे बड़ी हैरानी होती है कि उस प्रोफ़ेसर ने इतना सब कैसे जान लिया था।

उसने अन्य रेखाओं के बारे में भी बताया था पर वो सब मुझे याद नहीं है।

“ओह… तुस्सी इत्थे बैठे हो, मैं कदों दी तुहानू उडीक रई सी?” एक कर्कश और भारी सी आवाज ने हम दोनों का ध्यान भंग किया।

एक 35-36 साल की मोटी ताज़ी महिला हमारे सामने खड़ी थी। रंग गोरा था और चेहरा गोल मटोल सा था। गाल इस कदर भरे भरे थे कि आँखें कंजी (छोटी) लग रही थी। आँखों के नीचे की त्वचा सांवली सी हो रही थी और सूजी हुई भी लग रही थी। मैंने कहीं पढ़ा था कि सेक्स में असंतुष्ट रहने के कारण ऐसा हो जाता है।
मुझे लगा बढ़ऊ के पल्ले कुछ नहीं है या रात में इस मोटी के साथ कुछ नहीं कर पाता होगा। अपनी जवानी में तो यह मोटी भी जरूर खूबसूरत रही ही होगी। खंडहर बता रहे हैं कि इमारत कभी ना कभी तो जरूर बुलंद रही होगी।

“ओह… कनिका, यह मेरे मित्र हैं प्रेम माथुर … अपना मधुमास मनाने खजुराहो आये हैं !” प्रोफ़ेसर ने परिचय कराया।

“ओह… बोहत चंगा जी ! किन्ने दिनां दा प्रोग्राम हैगा जी तुहाडा ?” उसने पंजाबी भाषा में कहते हुए अपना हाथ मिलाने मेरी ओर बढ़ा दिया।

“तुहानू मिल के बोहत ख़ुशी होई जी !” मैंने हाथ जोड़ते हुए कहा। मैं भी पंजाबी बोल और समझ लेता हूँ। मेरे साथ पढ़ने वाले गोटी (गुरमीत सिंह) ने मुझे काम चलाऊ पंजाबी सिखा दी थी।

“ओह… तुस्सी वी पंजाबी जाणदे ओ ?”

“हाँ जी !”

“फेर ते बहोत ही चंगा है जी, कोई ते अपने पंजाब दा मिलया !” मोटी ने अब तो मेरा हाथ कस कर पकड़ लिया। वह तो पीछा ही नहीं छोड़ रही थी। वो तो जैसे आँखों ही आँखों में मुझे निचोड़ लेना चाहती थी। उसकी कामुक निगाहें मैं अच्छी तरह पहचानता था। उसके दायें होंठ के ऊपर भी मेरी तरह तिल जो बना था। साली की दोनों जाँघों पर भी जरूर तिल होगा।

मैं तो किसी तरह उससे पीछा छुड़ाने की सोच ही रहा था कि इतने में एक 17-18 साल की लौंडिया पास आ कर बैठ गई। उसने स्कर्ट और टॉप पहना था।
सिर पर नाइके की टोपी और स्पोर्ट्स शूज पहने थी। कानों में मधु की तरह छोटी छोटी सोने की बालियाँ, मोटी मोटी बिल्लोरी आँखें, कसे हुए गोल मटोल नितम्ब, नागपुरी संतरों जैसे बूब्स, गोरा रंग और छछहरा बदन।
उसके घुंघराले बाल देख कर तो मैं यह सोचने पर विवश हो गया कि उसकी पिक्की पर भी ऐसे ही घुंघराले रोयें आने शुरू हो गए होंगे। मैं तो उस फुलझड़ी को देखता ही रह गया।
उसकी जांघें देख कर तो मैं बेहोश होते होते बचा। यह तो मधु की जैसे छोटी बहन ही लग रही थी। ओह … जैसे सिमरन या मिक्की ही मेरे सामने बैठी हो। (सिमरन मेरी पहली प्रेयसी थी। सिमरन और मिक्की की कहानी आप क्रमशः “काली टोपी लाल रुमाल” और “तीन चुम्बन” के नाम से पढ़ सकते हैं)

“पापा चलो ना मुझे आइस क्रीम खानी है !” उसकी आवाज तो मिक्की और सिमरन से भी ज्यादा सुरीली थी। मैं तो उसे देखता ही रह गया।

हे लिंगेश्वर ! अगर यह चिड़िया मुझे मिल जाए तो बस मैं तो मधु के बजाय इसी के साथ अपना हनीमून मना लूं। इतनी छोटी उम्र में ही इतनी कातिल बन गई है तो जब और थोड़ी बड़ी होगी तो पता नहीं कितने घर बरबाद करेगी। मैं तो कुछ देर और बैठना चाहता था पर मोटी और प्रोफ़ेसर को कोई शक ना हो जाए मैं डर रहा था।

“ओह्हो … सोणी रुक थोड़ी देर ! साह्नू गल्ल करण दे !” मोटी ने उसे टोका तो वो मुँह फुला कर बैठ गई।

या … अल्लाह….. तुनकते हुए तो वो निरी सिमरन या मधु ही लग रही थी।

“सलोनी बेटा ! बस अभी चलते हैं !” प्रोफ़ेसर ने उसे पुचकारते हुए कहा।

ओह … इस चिड़िया का नाम सलोनी है। इसकी आँखें और चेहरा देख कर तो यही नाम जंचता है। मैंने अपने मन में ही कहा,”अति उत्तम मेरी सोहनी !”

“अच्छा प्रेम, कल मिलेंगे, शुभ रात्रि !” प्रोफ़ेसर ने उठते हुए कहा।

“प्रोफ़ेसर साहब आपका बहुत बहुत धन्यवाद !” मैंने हाथ मिलाते हुए कहा।

मोटी ने भी मेरा हाथ अपने हाथ में फिर से लेते हुए कहा,”प्रेम जी, कल कित्थे कित्थे जाण दा प्रोग्राम है ?”

“ओह… कल तो हम लोग यहाँ के मंदिर ही देखने जायेंगे !”

“असी वी नाल ही चलांगे ?”

“ठीक है जी !” मैंने कहा।

ख़ुशी के मारे मेरी तो बांछें ही खिल गई। कल पूरे दिन इस सलोनी सोनचिड़ी का साथ मिलेगा।

हे भगवान् ! तू कितना रहनुमा और अपने भक्तों पर कितना दयालु है ! मेरे लिए एक और तितली का जुगाड़ कर दिया। अब तो हनीमून का मज़ा दुगना क्या तिगुना हो जाएगा। रात को मैंने इसी तितली की याद में मधु को तीन बार कस कस कर रगड़ा और उसे अधमरा करके रात को दो बजे सोने दिया।

इससे आगे की कहानी अगले भाग में !

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