मुम्बई की गंध

फ़ुलवा 2009-10-07 Comments

“तेल भरवा लें !” कह कर रतन ने अपनी कार जुहू बीच जाने वाली सड़क के किनारे बने पेट्रोल पंप पर रोक दी और दरवाजा खोल कर बाहर उतर गया।

शहर में अभी-अभी दाखिल हुए किसी अजनबी के कौतुहल की तरह मेरी नजरें सड़क पर थी कि उन नजरों में एक टैक्सी उभर आई। टैक्सी का पिछला दरवाजा खुला और वह लड़की बाहर निकली। उसने बिल चुकाया और पर्स बंद किया। टैक्सी आगे बढ़ गई। लड़की पीछे रह गई।

यह लड़की है? विस्मय मेरी आँखों से कोहरे सा टपकने लगा।

मैं कार से बाहर आ गया।

कोहरा आसमान से भी झर रहा था। हमेशा की तरह निःशब्द और गतिहीन। कार की छत बता रही थी कि कोहरा गिरने लगा है।

मैंने घड़ी देखी। रात के दस से ज्यादा बज रहे थे।

रात के इस पहर में मैं कोहरे में चुपचाप भीगती लड़की को देखने लगा। घुटनों से बहुत बहुत ऊपर रह गया स्कर्ट और गले से बहुत बहुत नीचे चला आया सफेद टॉप पहने वह लड़की उसे गीले अंधेरे में चारों तरफ दूधिया रौशनी की तरह चमक रही थी। अपनी सुडौल, चिकनी और आकर्षक टांगों को वह जिस लयात्मक अंदाज में एक दूसरे से छुआ रही थी उसे देख कोई भी फिसल पड़ने को आतुर हो सकता था।

जैसे कि मैं।

लेकिन ठीक उसी क्षण, जब मैं लड़की की तरफ एक अजाने सम्मोहन सा खिंचने को था, रतन गाड़ी में आ बैठा। न सिर्फ आ बैठा बल्कि उसने गाड़ी भी स्टार्ट कर दी।

मैं चुपचाप रतन के बगल में आ बैठा और तंद्रिल आवाज में बोला,”वो लड़की देखी?”

वो लड़की मेरी आँखों में अश्लील वासना की तरह तैर रही थी।

“लिफ्ट चाहती है !” रतन ने लापरवाही से कहा और गाड़ी बैक करने लगा।

“पर यह अभी अभी टैक्सी से उतरी है।” मैंने प्रतिवाद किया।

“लिफ्ट के ही लिए तो !” रतन ने किसी अनुभवी गाइड की तरह किसी ऐतिहासिक इमारत के महत्वपूर्ण लगते तथ्य के मामूलीपन को उद्घाटित करने वाले अंदाज में बताया और गाड़ी सड़क पर ले आया।

“अरे तो उसे लिफ्ट दे दो न यार !” मैंने चिरौरी सी की।

जुहू बीच जाने वाली सड़क पर रतन ने अपनी लाल रंग की कार सर्र से आगे बढ़ा दी और लड़की के बगल से निकल गया। मेरी आंखों के हिस्से में लड़की के उड़ते हुए बाल आए। मैंने पीछे मुड़ कर देखा-लड़की जल्दी में नहीं थी और किसी-किसी कार को देख लिफ्ट के लिए अपना हाथ लहरा देती थी।

“अपन लिफ्ट दे देते तो… !” मेरे शब्द अफसोस की तरह उभर रहे थे।

“माई डियर! रात के साढ़े दस बजे इस सुनसान सड़क पर, टैक्सी से उतर कर यह जो हसीन परी लिफ्ट मांगने खड़ी है न, यह अपुन को खलास भी करने को सकता। क्या?” रतन मवालियों की तरह मुस्कराया।

अपने पसंदीदा पॉइंट पर पहुंच कर रतन ने गाड़ी रोकी। यह कहानी आप अन्तर्वासना डॉट कॉम पर पढ़ रहे हैं।

दुकानें इस तरह उजाड़ थीं, जैसे लुट गई हों। तट निर्जन था। समुद्र वापस जा रहा था।

“दो गिलास मिलेंगे?” रतन ने एक दुकानदार से पूछा।

“नहीं साब, अब्बी सख्ती है इधर, पर ठंडा चलेगा। दूर…समंदर में जा के पीने का।” दुकानदार ने रटा-रटाया सा जवाब दिया। उस जवाब में लेकिन एक टूटता सा दुख और बहुत सी चिढ़ भी शामिल थी।

“क्या हुआ?” रतन चकित रह गया,”पहले तो बहुत रौनक होती थी इधर। बेवड़े कहां चले गए?”

“पुलिस रेड मारता अब्बी। धंदा खराब कर दिया साला लोक।” दुकानदार ने सूचना दी और दुकान के पट बंद करने लगा। बाकी दुकानें भी बुझ रही थीं।

“कमाल है?” रतन बुदबुदाया, “अभी छह महीने पहले तक शहर के बुद्धिजीवी यहीं बैठे रहते थे। वो, उस जगह। वहां एक दुकान थी। चलो।” रतन मुड़ गया, “पाम ग्रोव वाले तट पर चलते हैं।”

हम फिर गाड़ी में बैठ गए। तय हुआ था कि आज देर रात तक मस्ती मारेंगे, अगले दिन इतवार था- दोनों का अवकाश।

फिर, हम करीब महीने भर बाद मिल रहे थे अपनी-अपनी व्यस्तताओं से छूट कर। चाहते थे कि अपनी-अपनी बदहवासी और बेचैनी को समुद्र में डुबो दिया जाए आज की रात। समुद्र किनारे शराब पीने का कार्यक्रम इसीलिए बनाया था।

गाड़ी के रुकते ही दो-चार लड़के मंडराने लगे। रतन ने एक को बुलाया,”गिलास मिलेगा?”

“और?” लड़का व्यवसाय पर था।

‘दो सोडे, चार अंडे की भुज्जी, एक विल्स का पैकेट।” रतन ने आदेश जारी कर दिया।

थोड़ी ही दूरी पर पुलिस चौकी थी, एक भय की तरह ! लेकिन कार की भव्यता उस भय के ऊपर थी।

सारा सामान आ गया था। हमने अपना डीएसपी का अद्धा खोल लिया था।

दूर तक कई कारें एक दूसरे से सम्मानजनक दूरी बनाए खड़ी थीं- मयखानों की शक्ल में। किसी किसी कार की पिछली सीट पर कोई नवयौवना अलमस्त सी पड़ी थी- प्रतीक्षा में।

सड़क पर भी कितना निजी है जीवन। मैं सोच रहा था और देख रहा था। देख रहा था और शहर के प्यार में डूब रहा था।

आइ लव मुम्बेई ! मैं बुदबुदाया।

किसी दुआ को दोहराने की तरह और सिगरेट सुलगाने लगा।

हवा में ठंडक बढ़ गई थी।

रतन को एक फिलीस्तीनी कहानी याद आ गई थी, जिसका अधेड़ नायक अपने युवा साथी से कहता है- तुम अभी कमसिन हो याकूब, लेकिन तुम बूढ़े लोगों से सुनोगे कि सब औरतें एक जैसी होती हैं, कि आखिरकार उनमें कोई फर्क नहीं होता। इस बात को मत सुनना क्योंकि यह झूठ है। हरेक औरत का अपना स्वाद और अपनी खुशबू होती है।

“पर यह सच नहीं है यार।” रतन कह रहा था,”इस गाड़ी की पिछली सीट पर कई औरतें लेटी हैं, लेकिन जब वे रुपयों को पर्स में ठूंसती हुई, हंसकर निकलती हैं, तो एक ही जैसी गंध छोड़ जाती हैं। बीवी की गंध हो सकता है, कुछ अलग होती हो। क्या खयाल है तुम्हारा?”

मुझे अनुभव नहीं था तो चुप रहा। बीवी के नाम से मेरी स्मृति में अचानक अपनी पत्नी कौंध गई, जो एक छोटे शहर में अपने मायके में छूट गई थी- इस इंतजार में कि एक दिन मुझे यहाँ रहने के लिए ढंग का घर मिल जाएगा और तब वह भी यहाँ चली आएगी। अपना यह दुख याद आते ही शहर के प्रति मेरा प्यार क्रमशः बुझने लगा।

हमारा डीएस०पी का अद्धा खत्म हो गया तो हमें समुद्र की याद आई। गाड़ी बंद कर हमने पैसे चुकाए तो सर्विस करने वाला छोकरा बायीं आंख दबा कर बोला,”माल मंगता है?”

“नहीं!” रतन ने इन्कार कर दिया और हम समुद्र की तरफ बढ़ने लगे, जो पीछे हट रहा था। लड़का अभी तक चिपका हुआ था।

“छोकरी जोरदार है सेठ ! दोनों का खाली सौ रुपए।”

“नई बोला तो?” रतन ने छोकरे को डपट दिया।

तट निर्जन हो चला था। परिवार अपने अपने ठिकानों पर लौट गए थे। दूर…कोई अकेला बैठा दुख सा जाग रहा था।

“जुहू भी उजड़ गया स्साला।” रतन ने हवा में गाली उछाली और हल्का होने के लिए दीवार की तरफ चला गया- निपट अंधकार में।

तभी वह औरत सामने आ गई। बददुआ की तरह।

“लेटना मांगता है?” वह पूछ रही थी।

एक क्वार्टर शराब मेरे जिस्म में जा चुकी थी। फिर भी मुझे झुरझुरी सी चढ़ गई।

वह औरत मेरी मां की उम्र की थी, पूरी नहीं तो करीब-करीब।

रात के ग्यारह बजे, समुद्र की गवाही में, उस औरत के सामने मैंने शर्म की तरह छुपने की कोशिश की लेकिन तुरंत ही धर लिया गया।

मेरी शर्म को औरत अपनी उपेक्षा समझ आहत हो गई थी। झटके से मेरा हाथ पकड़ अपने वक्ष पर रखते हुए वह फुसफुसाई,”एकदम कड़क है। खाली दस रुपया देना। क्या? अपुन को खाना खाने का।”

“वो…उधर मेरा दोस्त है।” मैं हकलाने लगा।

“वांदा नईं। दोनों ईच चलेगा।”

“शटअप।” सहसा मैं चीखा और अपना हाथ छुड़ा कर तेजी से भागा-कार की तरफ। कार की बाडी से लग कर मैं हांफने लगा रोशनी में। पीछे, समुद्री अंधेरे में वह औरत अकेली छूट गई थी-हतप्रभ। शायद आहत भी।

औरत की गंध मेरे पीछे-पीछे आई थी। मैंने अपनी हथेली को नाक के पास लाकर सूंघा- उस औरत की गंध हथेली में बस गई थी।

“क्या हुआ?” रतन आ गया था।

“कुछ नहीं।” मैंने थका-थका सा जवाब दिया, “मुझे घर ले चलो। आई…आई हेट दिस सिटी। कितनी गरीबी है यहाँ।”

“चलो, कहीं शराब पीते हैं।” रतन मुस्कराने लगा था।

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