महकती कविता-1

रोहण अपने तबादले पर कानपुर आ गया था। उसे जल्द ही एक अच्छा मकान मिल गया था। अकेला होने के कारण उसे भोजन बनाने, कपड़े धोने, घर की सफ़ाई में बहुत कठिनाई आती थी। संयोगवश उसे अपने मन की नौकरानी मिल ही गई।

एक जवान लड़की जो एक छोटे बच्चे को लेकर दरवाजे पर कुछ रात का बचा हुआ खाना मांगने आई थी, उसे उसने यूँ ही कह दिया था- कुछ काम वगैरह किया करो, ऐसे भीख मांगना ठीक नहीं है।

वो बोली- भैया, मुझे तो कोई काम देता ही नहीं है।
तो रोहण ने पूछा- मेरे घर पर काम करोगी?
तो वो मान गई थी।

रोहण ने पहले उसे ऊपर से नीचे तक देखा, नाम पूछा, उसका नाम कविता था और उसके बच्चे का नाम राजा था।
और कहा- पहले तुम अच्छे से नहा धो लो, साफ़ सुथरी तो हो जाओ। फिर तुम दोनों कुछ खा पी लो, फिर बताऊँगा तुम्हें काम।

उसने उसे साबुन और एक पुराना तौलिया दे दिया। अन्दर के कमरों में ताला लगा कर बाहर के कमरे की चाबी दे कर रोहण ऑफ़िस चला आया। शाम को लौटा तो वो भूल ही चुका था कि उसने किसी को वहाँ रख छोड़ा था।

फिर वो मन ही मन हंस पड़ा। अन्दर गया तो मां बेटे दोनों ही सोये हुये थे। नहाने धोने से वे दोनों कुछ साफ़ से नजर आ रहे थे। रोहण ने उन्हें ध्यान से देखा, लड़की तो सुन्दर थी, साफ़ रंग की, दुबली पतली, रेशमी से बाल। वो जमीन पर सोई हुई थी। उसे देख कर रोहण को लगा कि यदि ये शेम्पू से अपने बाल धो कर संवारे तो निश्चित ही वो और सुन्दर लगेगी।

रोहण ने उसे जगाया, वो झट से उठ बैठी। बैठक जिसे मैं उसके लिये खोल कर गया था उसने झाड़ू लगा कर पोंछा करके चमका दिया था।

रोहण ने कमरों को खोला, उसे रसोई बताई, काम समझाया और फिर स्नान करने को चला गया।

रोहण ने उसे नजरों से नापा तौला और बाजार से उसके लिये कुछ कपड़े ले आया। बच्चे के लिये भी निक्कर और कमीज ले आया। रात के लिये कविता के लिये एक सूती पायजामा और एक कुरता भी ले आया था। रात को भोजन से पहले वो स्नान आदि करके आई तो वो सच में खूबसूरत सी लगने लगी थी। वो कुरता उसे ढीला-ढाला सा आया था। चूंकि रोहण ने किसी पहली लड़की को अपने घर में इतनी समीप से देखा था इसलिये शायद वो उसे सुन्दर लग रही थी।

भोजन के लिये वो दोनों नीचे ही बैठ गये। लग रहा था कि वे बहुत भूखे थे। उन्होंने जम कर भोजन किया। पूछने पर पता चला कि उन्हें कभी भोजन मिलता था कभी नहीं भी मिलता था।

‘कहाँ रहती हो कविता?’
‘जी, कहीं नहीं!’
‘तो अब कहाँ जाओगी?’
‘कहीं भी…

फिर उसने भोजन करके राजा का हाथ पकड़ा और धीरे से मुस्कुरा कर थैंक्स कहा तो उसे एक झटका सा लगा। यह तो अंग्रेजी भी जानती है।
फिर उसने पीछे मुड़ कर पूछा- सवेरे मैं कितने बजे आऊँ?
‘यही कोई सात बजे…’
‘जी अच्छा…’

वो बाहर चली गई। रोहण ने अन्दर से दरवाजा बन्द कर लिया। रोज की भांति उसने अपने कमरे में जाकर, जो कि पहली मंजिल पर था, टीवी खोल कर ब्ल्यू फिल्म लगाई और और देर रात को मुठ्ठ मार कर सो गया।

सवेरे वो ब्रश करता हुआ बालकनी पर आया तो उसे अपने वराण्डे में कोई सोता हुआ दिखा। उसे बहुत गुस्सा आया। वो नीचे आया तो देखा कि वहाँ कविता और राजा सोये हुये थे। कविता तो एकदम सिकुड़ी हुई सी, राजा को अपने शरीर से चिपकाये हुये सो रही थी।

वो झुन्झला सा गया, उसने उन दोनों को उठाया और गुस्से में बोला- अरे, यहीं सोना था तो अन्दर क्यों नहीं सो गई? कोई देखेगा तो क्या सोचेगा?

वो कुछ नहीं बोली, बस सर झुका कर खड़ी हो गई।
फिर कुछ देर बाद बोली- सात तो बज गए होंगे? चाय बना दूँ?

रोहण ने एक तरफ़ हट कर उसे अन्दर जाने का रास्ता दे दिया। जब तक वो स्नान आदि करके आया तो उसने चाय परांठा और अण्डा बना कर तैयार कर दिया था। उसे बहुत अच्छा लगा। उसने नाश्ता कर लिया, उन दोनों से भी नाश्ता करने को कह दिया।

अब से तुम दोनों रसोई में रहना, ठीक है?
कविता की आँखें चमक उठी- साहब, दोपहर को खाने पर आयेंगे ना?
‘अब दिन का… पता नहीं, ठीक है आ जाऊँगा।’

जब रोहण दिन को घर आया तो वो कविता को पहचान ही नहीं पाया। सलवार कुर्ते चुन्नी में और शेम्पू से धोये हुये बाल, मुस्कराती हुई! ओह कितनी सुन्दर लग रही थी। राजा भी साफ़-सुथरा बहुत मासूम लग रहा था।
‘बहुत सुन्दर लग रही हो।’
‘जी, थेन्क्स! भोजन लगा दूँ?’

रोहण ने मां के अलावा इतना स्वादिष्ट भोजन कविता के हाथ का ही खाया था। फिर उसका मन ऑफ़िस जाने का नहीं हुआ। बस कमरे में ऊपर जाकर सो गया। उसने अपने गन्दे मोजे, चड्डी, बनियान, कमीज पैंट वगैरह स्नान के बाद यूँ ही डाल दिये थे। कविता उसके सोने के बाद कमरे में आ कर गन्दे कपड़े मोजे, जूते सभी कुछ ले गई, धुले प्रेस किये कपड़े, साफ़ मोजे, और जूते पॉलिश करके रख गई।
रोहण जब उठा, यह सब देखा तो उसे एक सुखद सा अहसास हुआ।

बस यूँ ही दिन कटने लगे। जाने कब रोहण के दिल में कविता के लिये कोमलता भर गई थी। शायद इन चार-पांच महीने में वो उसे पसन्द करने लगा था। कविता का तन भी इन चार-पांच महीनों में भर गया था और वो चिकनी-सलोनी सी लगने लगी थी।

इतने दिनों में बातों में ही रोहण जान गया था कि उसका नाजायज बच्चा किसी राह चलते आदमी की औलाद थी जिसे वो जानती तक नहीं थी। रेलवे प्लेटफ़ार्म पर उसका दैहिक शोषण हुआ था। चार साल से वो यूं ही दर दर भटक रही थी। कोई काम देता भी तो उसकी खा जाने वाली वासना भरी नजरों से वो डर जाती और भाग जाती थी। मुश्किल उसकी ठण्ड और बरसात के दिनो में आती थी। बस रात कहीं ठिठुरते हुये निकाल लेती थी। अपने छोटे से बच्चे को वो अपने तन से चिपका कर गर्मी देती थी। कानपुर में ठण्ड भी तेज पड़ती थी।

कविता रोहण का बहुत ध्यान रखती थी। सर झुका कर सारे काम करती थी। रोहण के गुस्सा होने पर वो चुप से सर झुका कर सुन लेती थी। रोहण तो अब आये दिन उसके लिये नये फ़ैशन के कपड़े, राजा के लिये जीन्स वगैरह खरीदने लगा था।

पर इन दिनों रोहण की बुरी आदतें रंग भी लाने लगी थी। रात को अकेले में ब्ल्यू फ़िल्म देखना उसकी आदत सी बन गई थी। फिर शनिवार को तो वो शराब भी पी लेता था। रोहण के बन्द कमरे की पीछे वाली खिड़की से एक बार कविता ने रोहण को ब्ल्यू फ़िल्म देखते फिर मुठ्ठ मारते देख लिया था। वो भी जवान थी, उसके दिल के अरमान भी जाग उठे थे। अब कविता रोज ही रात को करीब ग्यारह बजे चुपके से ऊपर चली आती और उस खिड़की से रोहण को ब्ल्यू फ़िल्म देखते देखा करती थी। वो इस दौरान अपने खड़े लण्ड को धीरे धीरे सहलाता रहता था। लण्ड को बाहर निकाल कर वो कभी अपने सुपाड़े को धीरे धीरे से सहलाता था। कभी कभी तो फ़िल्म में वीर्य स्खलन को देखते हुये वो अपना भी वीर्य लण्ड मुठ्ठ मार कर निकाल देता था।

बेचारी कविता के दिल पर सैकड़ो बिजलियाँ गिर जाती थी, दिल लहूलुहान हो उठता था, वो भी नीचे आकर अपनी कोमल चूत घिस कर पानी निकालने लगती थी।

अब तो कविता का भी यह रोज का काम हो गया, रोहण को मुठ्ठ मारते देखती और फिर खुद भी हस्तमैथुन करके अपना पानी निकाल देती थी।
कब तक चलता यह सब? कविता ने एक दिन मन ही मन ठान लिया कि वो रोहण को अब मुठ्ठ नहीं मारने देगी। वो स्वयं ही अपने आप को उससे चुदवा लेगी। रोहण उसके लिये इतना कुछ कर रहा था क्या वो उसके लिये इतना भी नहीं कर सकती? उसे भी तो अपने शरीर की ज्वाला शान्त करनी थी ना! तो क्या वो अपने आप को उसे सौंप दे? क्या स्वयं ही नंगी हो कर उसके कमरे में उसके सामने खड़ी हो जाये?

उफ़्फ़्फ़! नहीं ऐसे नहीं! फिर?
कहानी जारी रहेगी।

महकती कविता-2

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