काफ़ी है राह की इक ठोकर

(Kafi Hai Rah Ki Ik Thokar)

फ़ुलवा 2009-12-17 Comments

‘नमस्कार चटर्जी बाबू, क्या चल रहा है?’ कहते कहते घोष बाबू दरवाज़ा खोल कर अन्दर आ गए।

चटर्जी बाबू बरामदे में बैठे चाय की चुसकियाँ ले रहे थे।

‘कुछ खास नहीं घोष बाबू, बस अभी अभी दफ्तर से आया था, सोचा एक कप चाय ही पी लूँ !’

‘बैठिए, एक कप चाय तो चलेगी?’

‘नहीं नहीं चटर्जी बाबू, आपको बाहर बैठे देख कर चला आया !’ घोष बाबू अपनी कलाई पर बंधे मोतिये के गजरे को सूंघते हुए बोले और कुर्सी खींच कर बैठ गए।

‘कहाँ की तैयारी है घोष बाबू?’

‘बस देवी दर्शन को जा रहा हूँ !’ ठहाका लगाते हुए घोष बाबू बोले,’चलिये आपको भी ले चलें ! आप तो शायद कभी वो सीढ़ियाँ चढ़े ही नहीं?’

‘आप ठीक कह रहे हैं घोष बाबू, एक बार कोशिश की थी, रास्ते से ही वापस आना पड़ा !’

‘ऐसा कैसे हुआ?’ घोष बाबू का कौतूहल जागा।

‘मत पूछिये आप ! अहसास मर न जाये तो इन्सान के लिये काफी है राह की इक ठोकर लगी हुई !’ कहते हुये चटर्जी बाबू ने एक लम्बी सांस भरी।

यह सुनकर घोष बाबू पूरा किस्सा सुनने को आतुर हो उठे।

बहुत अर्सा पहले की बात है, कुछ यार दोस्त मुझे साथ ले गये। शाम का धुन्धलका फैला हुआ था और बाज़ार अपनी पूरी जवानी पर था।

पान की दुकान पर हम लोग पान लगवा रहे थे कि तभी देखा- दो तीन हट्टे कट्टे बदमाश से लगने वाले आदमी एक 17-18 साल की लड़की को ज़बरदस्ती खींच कर ले जा रहे थे। लड़की छूटने के लिये छटपटा रही थी और गुहार लगा रही थी, आसपास के लोग उसे छुड़ाने की जगह हंस रहे थे।

मुझे लगा यह मेरी 15 साल पहले की खोई हुई बेटी ही है जिसकी याद में मेरी पत्नी ने बिस्तर पकड़ लिया था और मौत को गले लगा लिया था। वो मेरे सामने आज आ भी जाये तो मैं उसे पहचान नहीं पाऊँगा क्योंकि जब वो बिछुड़ी थी तो वो तीन साल की थी।

उन गुण्डों के आगे मैं कर तो क्या सकता था? मुझसे वहाँ पर और रुका न गया। दोस्तों ने बहुत रोका मगर मैं घर के लिये पलट पड़ा और फिर कभी उधर देखने की हिम्मत ही न हुई।

कहते कहते चटर्जी बाबू की आंखें छलछला गई।

चटर्जी बाबू, आपने मेरी आँखें खोल दी, मुझे दलदल से निकाल लिया ! मैं आप का आभारी हूँ ! कह कर भरे मन से घोष बाबू उठ खड़े हुए और कलाई पर बंधे गजरे को उतार कर पास रखे एक गमले में डाल कर बाहर निकल अपने घर की ओर चल पड़े। शायद सुबह का भूला शाम को घर वापस जा रहा था।

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