किरदार-2

(Kirdaar-2)

प्रेषिका : स्लिमसीमा

“तुम यह काम क्यों कर रही हो? महज पैसे के लिए? क्या पैसा ही तुम्हारे लिए सब कुछ है?”

“मैं इस प्रोफेशन में पैसे और सेक्स के लिए नहीं आई इसका उन्माद और अनुभव मुझे यहाँ तक खींच लाया !”

“और तुम्हारे ग्राहक?”

“प्लीज़ ! इस घटिया शब्द का इस्तेमाल न करें ! मैं ग्राहकों से नहीं क्लाइंट्स से डील करती हूँ।”

“हे भगवान ! यह लड़की है या तूफ़ान?”

मेरी निगाहें उस पर टिकी रही यह जानने की लालसा में कि वह आगे क्या बोलेगी।

पर मैं अपने आप को ज्यादा रोक न सकी और पूछ बैठी- पर कौन किसे चुनता है?

“मैं अपने क्लाइंट्स खुद चुनती हूँ। क्लाइंट्स आकर्षक पुरुष होते हैं, ज्यादा से ज्यादा 35 से 40 तक के ! जैसे एक मल्टीनेशनल बैंक का कंट्री हैड जो अब बहुत अच्छा दोस्त है, बॉलीवुड के एक प्रोड्यूसर को भी कम्पनी देती हूँ, एक सॉफ्टवेयर कम्पनी का चीफ एक्जिक्यूटिव है, कुछ और भी हैं, उनकी कम्पनी के खर्चे इतने बड़े होते हैं कि मैं भी एक खर्च की तरह उनकी कम्पनी के खाते में खप जाती हूँ और उनके लिए मुझे मेरे खर्चे समेत छिपा पाना कोई मुश्किल नहीं !”

“वैसे तुम उन्हें कितनी महंगी पड़ती हो?”

यह सवाल पूछते समय मुझे अपने आप पर घिन आई !

वह मुस्कराई- कम से कम 50000 और दो दिन की बुकिंग ज़रूरी है। रोज़ रोज़ कोई तंग न करे इसलिए फ़ीस ज्यादा रखी है। महीने में एक अपॉयन्टमेंट काफी है, हफ्ते में एक क्लाइंट से निपटने लगी तो यह सब रूटीन बन जायेगा और रूटीन से बोरियत होती है। यह तो आप मानेंगी ही !”

“बदतमीज़, खुले आम धंधा करती है और बात रूटीन और बोरियत की करती है? करतूतें चुड़ैलों जैसी और मिजाज परियों से?”

“तुम्हें नहीं लगता, तुम कुछ गलत कर रही हो?”

“क्यूँ? क्या गलत है इसमें? कम से कम इतनी तो हिम्मत रखती हूँ कि जो करती हूँ, उसे स्वीकार करती हूँ, मैं अपने क्लाइंट्स के साथ समय बिताने की ही तो कीमत लेती हूँ, लाइफ स्टाइल और सेक्स इस पैकेज का हिस्सा है। अपनी इस कामुकता और उत्तेजना को खुद एन्जॉय करती हूँ, इसे आप मेरा नशा कह सकती हैं।”

“क्या कभी किसी से मन से नहीं जुड़ी?”

“भावुकता में बहने लगी तो तबाह हो जाऊँगी मैं ! मैंने अपने लिए खुद ही रुल-बुक बनाई है, जैसे अपने पैसों के लेनदेन का हिसाब मैं खुद करुँगी, मन को किसी भी कीमत पर कमज़ोर नहीं पड़ने दूंगी और किसका साथ देना है, यह फैसला मेरा अपना होगा।”

वह सहजता से अपनी बात कहती रही, इस घटियापन में भी वह चुनने के हक़ की बात का बखान शान से कर गई, यह देख कर मैं दंग थी।

“तो चुनती कैसे हो?”

“मैं मिलने से पहले अपने क्लाइंट्स से खुल कर बात करती हूँ।”

“एक बार की बातचीत में क्या पता चलता है?”

“एक बार नहीं, मैं कई बार बात करती हूँ, इमेल से बात होती है, चैट करती हूँ, उसकी फोटो मेल पर मंगवा कर देखती हूँ, केमेस्ट्री समझती हैं आप? जब मुझे आदमी की केमेस्ट्री अपने से मेल खाती लगती है, तभी उससे मिलने के लिए राज़ी होती हूँ, वरना वहीं चैप्टर क्लोज़ कर देती हूँ और फिर बात खत्म ! मैं स्टुपिड चक्करों से दूर रहती हूँ !”

“पर तुम तो पढ़ी लिखी लगती हो, और तुम्हारे शौक भी पढ़े लिखे लोगों के से हैं।” हमारे बीच की बातचीत धीरे धीरे रफ़्तार पकड़ने लगी थी।

“तो क्या आप समझती हैं कि यह काम सिर्फ अनपढ़ औरतों के हिस्से ही आता है?” मेरे चेहरे पर उतरी मासूमियत की खिल्ली उड़ाते हुए उसने पूछा।

“यह बात नहीं, पर तुम मुझे कहीं से भी मजबूर नहीं लगती फिर यह सब क्यों? शादी क्यों नहीं करती? शादी के बाद सेटल हो जाओगी तो खुश रहोगी।”

“मेरे ख्याल से शादी लोगों को सेटल कम और अनसेटल ज्यादा करती है !” मेरे आसपास का अनुभव तो कम से कम यही कहता है ! रिश्ते में पत्नी सिर्फ बार्बी डॉल की तरह तोड़ी-मरोड़ी जाती है। पर आप नहीं समझेंगी !”

“क्यों नहीं समझूंगी? एक तरफ अपने को कम्पेनियन कहती हो, एक तरफ एस्कोर्ट बताती हो, इसमें समझने को रखा ही क्या है?” मैंने अपनी किताबें समेटते हुए कहा।

“बाई द वे, मैंने एम.बी.ए किया है और अर्थशास्त्र में एम ए भी हूँ।”

“तो फिर यह सब किसलिए?” मैंने कुर्सी से उठते हुए कहा मेरी आवाज़ में एक झिड़की थी, पता नहीं किस हक़ से मैं उस पर अपनी नाराजगी ज़ाहिर कर गई।

वह मेरा हाथ पकड़ कर मुझे खींच कर वापिस बिठाते हुए बोली- बैठिए, आपसे बात करना मुझे अच्छा लग रहा है !”

उसने अपना पर्स खोला और नेल फाइलर निकाल कर हल्के से अपने नाखूनों को आकार देने लगी।

“आपको बुरा तो नहीं लगेगा यदि मैं नेल फाइल करते हुए आपसे बात करूँ?”

“अब बुरा क्या लगेगा?” मैंने मन ही मन कहा पर वह फिर भांप गई- छोड़िए, नहीं करती ! बेड मैनर्स !

कहते हुए उसने नेल फाइलर वापस पर्स में डाला और अपना विजिटिंग कार्ड निकाल कर मेरे कॉफ़ी के खाली कप के पास रख दिया।

कार्ड पर खूबसूरत लिखावट में लिखा था- कारा बोस

मुझे अचानक महसूस हुआ कि हम एक दूसरे का नाम भी नहीं जानते हैं पर पता नहीं कैसी बातों के चक्रव्यूह में फंस चुके हैं। सुबोध ठीक ही कहते हैं कि बतियाने का मेरा यह शौक मुझे कभी बड़ा मंहगा पड़ेगा।

“तुम मुझे अनु कह सकती हो !” कार्ड हाथ में लेकर उसे करीब से देखने के बाद मैंने बैठते हुए कहा।

अपनी पहचान की परछाई को भी मैं उससे छिपा कर रखना चाहती थी।

“यह मेरी ही लिखावट है।” उसने मुस्कराते हुए बताया।

मेरी निगाह उसकी उँगलियों पर से गुज़र गई !

उसकी आँखों में झांकते हुए मैंने पूछा- पहल कैसे होती है?

“मैं जिस किसी पुरुष से मिलती हूँ वे कम से कम इतने शालीन तो होते ही हैं कि सेक्स का ज़िक्र न करें। अगर सिर्फ सेक्स ही उनके दिमाग पर हावी है तो वे किसी को भी घंटे भर के लिए भाड़े पर ला सकते हैं।”

“तुम्हें नहीं लगता कि तुम ज़रूरत से ज्यादा नखरे करती हो?”

“आपको ऐसा क्यों लगता है?”

मेरे सवाल के जवाब में उसने सवाल कर दिया लेकिन फिर खुद ही बोलने लगी- मेरे पास दिमाग व शरीर दोनों हैं, मैं अपनी बुद्धि पहले बेचती हूँ और शरीर बाद में ! मैं 5 भाषाएँ बोल सकती हूँ, चायनीज़ सीख रही हूँ, आजकल इसकी मांग है, रोज़ अखबार व पत्रिकाएँ पढ़ती हूँ, जिस किसी व्यक्ति से मिलने का मन बनाती हूँ तो पहले उसके बिजनेस को गहराई से समझती हूँ ताकि मिलने पर उसकी समस्याओं पर बात कर सकूँ और हो सकता है उसे कुछ सलाह भी दे सकूँ।”

“तुम क्या सलाह दोगी?”

“आप मुझे पूरी तरह नकारात्मक दृष्टि से देख रही हैं !”

“तुम्हारा अन्दर सकारात्मक है क्या? यह तो पता चले !” मेरी खीज उससे छिपी नहीं रही।

“आप मानेंगी नहीं पर मेरे कई क्लाइंट्स तो ऐसे है जो मुझे कई बार दोहरा चुके हैं।”

“तुम्हारी इस शक्ल और शरीर के लिए ही ना?!!?”

कहानी जारी रहेगी।

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