विदुषी की विनिमय-लीला-7

लीलाधर 2011-06-01 Comments

लेखक : लीलाधर

संदीप और इनका स्‍वाद एक जैसा था। सचमुच सारे मर्द एक जैसे होते हैं। इस खयाल पर हँसी आई। मैंने मुँह में जमा हो गए अंतिम द्रव को जबरदस्‍ती गले के नीचे धकेला और जैसे उन्‍होंने मुझे किया था वैसे ही मैंने झुककर उनके मुँह को चूम लिया। लो भाई, मेरा भी जवाबी इनाम हो गया। किसी का एहसान नहीं रखना चाहिए अपने ऊपर।

उनके चेहरे पर बेहद आनंद और कृतज्ञता का भाव था। थोड़े लजाए हुए भी। सज्‍जन व्‍यक्‍ति थे। मेरा कुछ भी करना उनपर उपकार था जबकि उनका हर कार्य अपनी योग्यता साबित करने की कोशिश। मैंने तौलिए से उनके लिंग और आसपास के भीगे क्ष्‍ोत्र को पोंछ दिया। उनके साथ उस समय पत्‍नी का-सा व्‍यवहार करते हुए शर्म आई…

अपनी नग्‍नता के प्रति चैतन्‍य होकर मैंने चादर खींच लिया। बाँह बढ़ाकर उन्होंने मुझे समेटा और खुद भी चादर के अंदर आ गए। मैं उनकी छाती से सट गई। दो स्‍खलनों के बाद उन्‍हें भी आराम की जरूरत थी। अभी संभोग भला क्‍या होना था। पर उसकी जगह यह इत्‍मीनान भरी अंतरंगता, यह थकान मिली शांति एक अलग ही सुख दे रही थी। मैंने आँखें मूंद लीं। एक बार मन में आया जाकर संदीप को देखूँ। पर उनका ख्याल दिल से निकाल दिया, चाहे जो करें !

पीठ पर हल्‍की-हल्‍की थपकी… हल्का-हल्का पलकों पर उतरता खुमार… पेट पर नन्‍हें लिंग-शिशु का दबाव… स्‍तनों पर, स्तनाग्रों पर उनकी छाती के बालों का स्‍पर्श… मन को हल्‍के-हल्‍के आनंदित करता उत्‍तेजनाहीन प्‍यार… मैंने खुद को खो जाने दिया।

उत्तेजनाहीनता… बस थो़ड़ी देर के लिए। वस्‍त्र खोकर परस्पर लिपटे दो युवा नग्न शरीरों को नींद का सौभाग्य कहाँ। बस थकान की खुमार। उतनी ही देर का विश्राम जो पुन: सक्रिय होने की ऊर्जा भर सकने में समर्थ हो जाए। पुन: सहलाहटें, चुम्बन, आलिंगऩ, मर्दन… सिर्फ इस बार उनमें खोजने की बेकरारी कम थी, पा लेने का विश्वास अधिक, हम फिर गरम हो गए थे।

एक बार फिर मेरी टांगें फैली थीं, वे बीच में।

“ओके, तो अब असली चीज के लिए तैयार हो?” मेरी नजर उनके तौलिए के उभार पर टिकी थी। मैंने शरमाते हुए मुस्‍कुराते हुए सिर हिलाया।

वे हँसे।

“मेरी भाषा को माफ करना, लेकिन अब तुम जिन्‍दगी की वन आफ दि बेस्‍ट ‘चुदाई’ पाने जा रही हो।” शब्द मुझे अखरा यद्यपि उनका घमण्ड अच्‍छा लगा। मेरा अपना संदीप भी कम बड़ा चुदक्‍कड़ नहीं था। अपने शब्‍द पर मैं चौंकी, हाय राम, क्‍या सोच गई। इस आदमी ने इतनी जल्‍दी मुझे प्रभावित कर दिया?

“कंडोम लगाने की जरूरत तो नहीं है? गोली ले रही हो क्‍या?”

मैंने सहमति में सिर हिलाया।

“तो फिर एकदम रिलैक्‍स हो जाओ, कोई टेंशन नहीं !”

उन्होंने तौलिया हटा दिया। वह सीधे मेरी दिशा में बंदूक की तरह तना था। अभी मैंने अपने मुँह में इसका करीब से परिचय प्राप्त किया था फिर भी यह मुझे अपने अंदर लेने के खयाल से डरा रहा था। संदीप की अपेक्षा यह ‘सात इंच’… “हाय राम !”

उन्होंने पाँवों के बीच अपने को व्यवस्थित किया, लिंग को भग-होंठों के बीच ऊपर-नीचे चलाकर भिगोया, उससे रिसता चिकना पूर्वस्राव यानि Pre-cum महसूस हो रहा था।

मैंने पाँव और फैला दिए, थोड़ा सा नितम्‍बों को उठा दिया ताकि वे लक्ष्‍य को सीध में पा सकें।

लिंग ने फिसलकर गुदा पर चोट की, “कभी इसमें किया है?”

“कभी नहीं ! बिल्कुल नहीं !”

मुझे यह बेहद गंदा लगता था।

“ठीक है !” उन्‍होंने उसे वहाँ से हटाकर योनिद्वार पर टिका दिया।

मैं इंतजार कर रही थी…

“ओके, रिलैक्स !”

भग-होंठ खिंचे। बहुत ही मोटे थूथन का दबाव… सतीत्व की सबसे पवित्र गली में एक परपुरुष की घुसपैठ। मेरा समर्पित पत्नी मन पुकार उठा,” संदीप, ओ मेरे स्वामी, तुमने मुझे कहाँ पहुँचा दिया।”

पातिव्रत्य का इतनी निष्ठा से सुरक्षित रखा गया किला सम्हालकर हल्के-हल्के दिए जा रहे धक्कों से टूट रहा था। लिंग को वे थोड़ा बाहर खींचते फिर उसे थोड़ा और अंदर ठेल देते। अंदर की दीवारों में इतना खिंचाव पहले कभी नहीं महसूस हुआ था। कितना अच्छा लग रहा था, मैं एक साथ दु:ख और आनन्द से रो पड़ी।
वे मेरे पाँवों को मजबूती से फैलाए थे। मेरी आँखें बेसुध उलट गईं थीं। मैं हल्के-हल्के कराहती, उन्हें मुझमें और गहरे उतरने के लिए प्रेरित कर रही थी।

थो़ड़ी देर लगी लेकिन वे अंतत: मुझमें पूरा उतर जाने में कामयाब हो गए। मेरी गुदा के पास उनके सख्त फोतों का दबाव महसूस हुआ।

वे झुके और मेरे कंठ को बगल से चूमते हुए मेरे स्तनों को सहलाने लगे, चूचुकों को पुनः दबा, रगड़, उन्हें चुटकियों से मसल रहे थे।

मैं तीव्र उत्तेजना को किसी तरह सम्हाल रही थ, वे उतरकर उन्हें बारी-बारी से पीने लगे।

आनन्द में मेरा सिर अगल बगल घूम रहा था। उन्होंने कुहनियों को मेरे बगलों के नीचे जमाया और अपने विशाल लिंग से आहिस्ता आहिस्ता लम्बे धक्के देने लगे। वे धीरे-धीरे लगभग पूरा निकाल लेते फिर उसे अंदर भेज देते। जैसे-जैसे मैं उनके कसाव की अभ्यस्त हो रही थी, वे गति बढ़ाते जा रहे थे। धक्कों में जोर आ रहा था। शीघ्र ही उनके फोते गुदा की संवेदनशील दरार में चोट करने लगे। मैंने उन्हें कस लिया और नीचे से जवाब देने लगी। मेरे अंदर फुलझड़ियाँ छूटने लगीं।

वे लाजवाब प्रेमी थे।

आहऽऽऽऽह…….. आहऽऽऽऽह ……….. आहऽऽऽऽह… सुख की बेहोश कर देने वाली तीव्रता में मैंने उनके कंधों में दाँत गड़ा दिए।

वे दर्द से छटपटाकर मुझे जोर जोर कूटने लगे। धचाक, धचाक, धचाक… मानों झंझोड़कर मेरा पुर्जा पुर्जा तोड़कर बिखेर देना चाहते थे।

हम दोनों किसी मशीनगन की तरह छूट रहे थे। मेरे नाखूनों ने उनकी पीठ पर कितने ही गहरे खुरचनें बनाई होंगी।

मुझे कुछ आभास सा हुआ कोई दरवाजे पर है:

दो छायाएँ !

पर चोटों की बमबारी ने उधर ध्यान ही नहीं देने दिया। हम इतनी जोर से मैथुन कर रहे थे कि सरककर बिस्तर के किनारे पर आ गए थे। गिरने से बचने के लिए हम एक-दूसरे को जकड़े थे, जोर लगाकर पलटियाँ खाते हम बीच में आ गए। दो दो स्खलनों ने हममें टिके रहने की अपार क्षमता ला दी थी।

“ओ माय गॉड !..”

उनका शरीर अकड़ा, अंतिम प्रक्रिया शुरू हो गई, मुझमें उनका गर्म लावा भरने लगा। मैं बस बेहोश हो गई। अंतिम सुख ने बस मेरी सारी ताकत निचोड़ ली। वे गुर्राते मुझमें स्खलित हो रहे थे। मैं स्वयं मोम सी पिघलती उस द्रव में मिलती जा रही थी।

मैंने दरवाजे पर देखा, कोई नहीं था। शायद मेरा भ्रम था।

उन्होंने मुझे बार बार चूमकर मेरी तारीफ की और धन्यवाद दिया- “It was wonderful ! ऐसा पहले कभी नहीं हुआ। तुम कमाल की हो।”

मुझे निश्चित लगा कि शीला ने इतना मजा उन्हें जिन्दगी में नहीं दिया होगा। मैंने खुद को बहुत श्रेष्ठ महसूस किया।

मैंने बिस्तर से उतरकर खुद को आइने में देखा। चरम सुख से चमकता नग्ऩ शरीर, काम-वेदी़ घर्षण से लाल, जाँघों पर रिसता हुआ वीर्य।

मैंने झुककर ब्रा और पैंटी उठाई, उन्होंने मेरी झुकी मुद्रा में मेरे पृष्ठ भाग के सौंदर्य का पान कर लिया। मैं बाथरूम में भाग गई।

रात की घड़िया संक्षिप्त हो चली थी।

नींद खुली तो शीला चाय लेकर आ गई थी। उसने हमें गुड मार्निंग कहा। मुझे उस वक्त उसके पति के साथ बिस्तर पर चादर के अंदर नग्नप्राय लेटे बड़ी शर्म आई और अजीब सा लगा।

लेकिन शीला के चेहरे पर किसी प्रकार की ईर्ष्या के बजाय खुशी थी। वह मेरी आँखों में देखकर मुस्कुराई। मुझे उसके और संदीप के बीच ‘क्या हुआ’ की बहुत सारी जिज्ञासा थी।

अगली रात संदीप और मैं बिस्तर पर एक-दूसरे के बारे में पूछ रहे थे।

“कैसा लगा तुम्हें?” संदीप ने पूछा।

“तुम बोलो? तुम्हारा बहुत मन था !” मैं व्यंग्य करने से खुद को रोक नहीं पा रही थी, हालाँकि मैंने स्वयं अभूतपूर्व आनन्द उठाया था।

“ठीक ही रहा।”

” ‘ठीक ही’ क्यों?”

“सब कुछ हुआ तो सही, पर उस लड़की में वो रिस्पांस नहीं था।”

“अच्छा! सुंदर तो वो थी।”

“हाँऽऽऽ शायद पाँच इंच में उसे मजा नहीं आया होगा।”

“तुम साइज वगैरह की बात क्यों सोचते हो, ऐसा नहीं है।” मैं उन्हें दिलासा देना चाहती थी, पर बात सच लग रही थी। मुझे अनय के बड़े आकार के कसाव और घर्षण का कितना आनन्द मिला था।

“तुम्हारा कैसा रहा?”

मैं खुलकर बोल नहीं पाई। बस ‘ठीक ही’ तक कह पाई।

“कुछ खास नहीं हुआ?”

“नहीं, बस वैसे ही…”

संदीप की हँसी ने मुझे अनिश्चय में डाल दिया। क्या अनय ने इन्हें बता दिया? या क्या ये सचमुच उस समय दरवाजे पर खड़े थे?

“तुम तो एकदम गीली हो।” उनकी उंगलियाँ मेरी योनि को टोह रही थीं, “अच्छा है उसने तुम्हें इतना उत्तेजित किया।”

अनय के साथ की याद और संदीप के स्पर्श ने मुझे सचमुच बहुत गीली कर दिया था।

“अनय इधर आता रहता है। शायद जल्दी ही वे दोनों आएँ !”

मैं समझ नहीं पा रही थी खुश होऊँ या उदास।

“एक बात कहूँ?”

“बोलो?”

“पता नहीं क्यों, पर मेरा एक चीज खाने का मन कर रहा है।”

“क्या?”

“चाकलेट !”

“चाकलेट?”

“हाँ चाकलेट !”

“क्या तुमने हाल में खाया है?”

मैं अवाक ! क्या कहूँ।

“तुमको मालूम है?”

संदीप ठठाकर हँस पड़े। मैं खिसियाकर उन्हें मारने लगी।

मेरे मुक्कों से बचते हुए बोले, “अगली बार चाकलेट खाना तो अपने पति को नहीं भूल जाना।”

मैंने शर्माकर उनकी छाती में चेहरा घुसा दिया।

“मुझे तुम्हें देखने में बहुत मजा आया। मुझे कितनी खुशी हुई बता नहीं सकता। शीला अच्छी थी, मगर तुमसे उसकी कोई तुलना नहीं।”

“तुम भी मेरे लिए सबसे अच्छे हो।” मैंने उन्हें आलिंगन में जकड़ लिया।

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