केले का भोज-7

(Kele Ka Bhoj-7)

लीलाधर 2010-02-07 Comments

This story is part of a series:

नेहा ने जब एक उजला टिशू पेपर मेरे होंठों के बीच दबाकर उसका गीलापन दिखाया तब मैंने समझा कि मैं किस स्तर तक गिर चुकी हूँ। एक अजीब सी गंध, मेरे बदन की, मेरी उत्तेजना की, एक नशा, आवेश, बदन में गर्मी का एहसास… बीच बीच में होश और सजगता के आते द्वीप।

जब नेहा ने मेरे सामने लहराती उस चीज की दिखाते हुए कहा, ‘इसे मुँह में लो !’
तब मुझे एहसास हुआ कि मैं उस चीज को जीवन में पहली बार देख रही हूँ। साँवलेपन की तनी छाया, मोटी, लंबी, क्रोधित ललाट-सी नसें, सिलवटों की घुंघचनों के अन्दर से आधा झाँकता मुलायम गोल गुलाबी मुख- शर्माता, पूरे लम्बाई की कठोरता के प्रति विद्रोह-सा करता। मैंनेहा के चेहरे को देखती रह गई। यह मुझे क्या कह रही है!
‘इसे गीला करो, नहीं तो अन्दर कैसे जाएगा।’ नेहा ने मेरा हाथ पकड़कर उसे पकड़ा दिया।
‘निशा, यू हैव प्रॉमिस्ड।’

मेरा हाथ अपने आप उस पर सरकने लगा। आगे-पीछे, आगे-पीछे।
‘हाँ, ऐसे ही।’ मैं उस चीज को देख रही थी। उसका मुझसे परिचय बढ़ रहा था।
‘अब मुँह में लो।’
मुझे अजीब लग रहा था। गंदा भी… ।
‘हिचको मत। साफ है। सुबह ही नहाया है।’ नेहा की मजाक करने की कोशिश…
मेरे हाथ यंत्रवत हरकत करते रहे।

‘लो ना !’ नेहा ने पकड़कर उसे मेरे मुँह की ओर बढ़ाया। मैंने मुँह पीछे कर लिया।
‘इसमें कुछ मुश्किल नहीं है। मैं दिखाऊँ?’

नेहा ने उसे पहले उसकी नोक पर एक चुम्बन दिया और फिर उसे मुँह के अन्दर खींच लिया। सुरेश के मुँह से साँस निकली। उसका हाथ नेहा के सिर के पीछे जा लगा। वह उसे चूसने लगी। जब उसने मुँह निकाला तो वह थूक में चमक रहा था। मैं आश्चर्य में थी कि सदमे में, पता नहीं।
नेहा ने अपने थूक को पोंछा भी नहीं, मेरी ओर बढ़ा दिया- यह लो।

‘लो ना…!’ उसने उसे पकड़कर मेरी ओर बढ़ाया। सुरेश ने पीछे से मेरा सिर दबाकर आगे की ओर ठेला। लिंग मेरे होंठों से टकराया। मेरे होंठों पर एक मुलायम, गुदगुदा एहसास। मैं दुविधा में थी कि मुँह खोलूँ या हटाऊँ कि ‘निशा, यू हैव प्रॉमिस्ड’ की आवाज आई।
मैंने मुँह खोल दिया।

मेरे मुँह में इस तरह की कोई चीज का पहला एहसास था। चिकनी, उबले अंडे जैसी गुदगुदी, पर उससे कठोर, खीरे जैसी सख्त, पर उससे मुलायम, केले जैसी। हाँ, मुझे याद आया। सचमुच इसके सबसे नजदीक केला ही लग रहा था। कसैलेपन के साथ। एक विचित्र-सी गंध, कह नहीं सकती कि अच्छी लग रही थी या बुरी। जीभ पर सरकता हुआ जाकर गले से सट जा रहा था। नेहा मेरा सिर पीछे से ठेल रही थी। गला रुंध जा रहा था और भीतर से उबकाई का वेग उभर रहा था।
‘हाँ, ऐसे ही ! जल्दी ही सीख जाओगी।’
मेरे मुँह से लार चू रहा था, तार-सा खिंचता। मैं कितनी गंदी, घिनौनी, अपमानित, गिरी हुई लग रही हूँगी।
सुरेश आह ओह करता सिसकारियाँ भर रहा था।

फिर उसने लिंग मेरे मुँह से खींच लिया। ‘ओह अब छोड़ दो, नहीं तो मुँह में ही…’
मेरे मुँह से उसके निकलने की ‘प्लॉप’ की आवाज निकलने के बाद मुझे एहसास हुआ मैं उसे कितनी जोर से चूस रही थी। वह साँप-सा फन उठाए मुझे चुनौती दे रहा था।

उन दोनों ने मुझे पेट के बल लिटा दिया। पेड़ू के नीचे तकिए डाल डालकर मेरे नितम्बों को उठा दिया। मेरे चूतड़ों को फैलाकर उनके बीच कई लोंदे वैसलीन लगा दिया।
कुर्बानी का क्षण ! गर्दन पर छूरा चलने से पहले की तैयारी।
‘पहले कोई पतली चीज से !’

नेहा मोमबत्ती का पैकेट ले आई। हमने नया ही खरीदा था। पैकेट फाड़कर एक मोमबत्ती निकाली। कुछ ही क्षणों में गुदा के मुँह पर उसकी नोक गड़ी। नेहा मेरे चूतड़ फैलाए थी। नाखून चुभ रहे थे। सुरेश मोमबत्ती को पेंच की तरह बाएँ दाएँ घुमाते हुए अन्दर ठेल रहा था। मेरी गुदा की पेशियाँ सख्त होकर उसके प्रवेश का विरोध कर रही थीं। वहाँ पर अजीब सी गुदगुदी लग रही थी।

जल्दी ही मोम और वैसलीन के चिकनेपन ने असर दिखाया और नोक अन्दर घुस गई। फिर उसे धीरे धीरे अन्दर बाहर करने लगा।
मुझसे कहा जा रहा था,’रिलैक्सन… रिलैक्सव… टाइट मत करो… ढीला छोड़ो… रिलैक्स… रिलैक्स…’
मैं रिलैक्स करने, ढीला छोड़ने की कोशिश कर रही थी।

कुछ देर के बाद उन्होंने मोमबत्ती निकाल ली। गुदा में गुदगुदी और सुरसुरी उसके बाद भी बने रहे।
कितना अजीब लग रहा था यह सब ! शर्म नाम की चिड़िया उड़कर बहुत दूर जा चुकी थी।
‘अब असली चीज !’ उसके पहले सुरेश ने उंगली घुसाकर छेद को खींचकर फैलाने की कोशिश की- रिलैक्स… रिलैक्स .. रिलैक्स…’

जब ‘असली चीज’ गड़ी तो मुझे उसके मोटेपन से मैं डर गई। कहाँ मोमबत्ती का नुकीलापन और कहाँ ये भोथरा मुँह। दुखने लगा। सुरेश ने मेरी पीठ को दोनों हाथों से थाम लिया। नेहा ने दोनों तरफ मेरे हाथ पकड़ लिए, गुदा के मुँह पर कसकर जोर पड़ा, उन्होंने एक-एक करके मेरे घुटनों को मोड़कर सामने पेट के नीचे घुसा दिया गया। मेरे नितम्ब हवा में उठ गए। मैं आगे से दबी, पीछे से उठी। असुरक्षित। उसने हाथ घुसाकर मेरे पेट को घेरा…
अन्दर ठेलता जबर्दस्तब दबाव…
ओ माँऽऽऽऽऽ…

पहला प्यार, पहला प्रवेश, पहली पीड़ा, पहली अंतरंगता, पहली नग्नता… क्या-क्या सोचा था। यहाँ कोई चुम्बन नहीं था, न प्यार भरी कोई सहलाहट, न आपस की अंतरंगता जो वस्त्रनहीनता को स्वादिष्ट और शोभनीय बनाती है। सिर्फ रिलैक्स… रिलैक्स .. रिलैक्सप का यंत्रगान…

मोमबत्ती की अभ्‍यस्त‍ गुदा पर वार अंतत: सफल रहा- लिंग गिरह तक दाखिल हो गया। धीरे धीरे अन्दर सरकने लगा। अब योनि में भी तड़तड़ाहट होने लगी। उसमें ठुँसा केला दर्द करने लगा।
‘हाँ हाँ हाँ, लगता है निकल रहा है !’ नेहा मेरे नितम्बों के अन्दर झाँक रही थी।
‘मुँह पर आ गया है… मगर कैसे खींचूं?’
लिंग अन्दर घुसता जा रहा था। धीरे धीरे पूरा घुस गया और लटकते फोते ने केले को ढक दिया।
‘बड़ी मुश्किल है।’ नेहा की आवाज में निराशा थी।

‘दम धरो !’ सुरेश ने मेरे पेट के नीचे से तकिए निकाले और मेरे ऊपर लम्बा होकर लेट गया। एक हाथ से मुझे बांधकर अन्दर लिंग घुसाए घुसाए वह पलटा और मुझे ऊपर करता हुआ मेरे नीचे आ गया। इस दौरान मेरे घुटने पहले की तरह मुड़े रहे।

मैं उसके पेट के ऊपर पीठ के बल लेटी हो गई और मेरा पेट, मेरा योनिप्रदेश सब ऊपर सामने खुल गए।
नेहा उसकी इस योजना से प्रशंसा से भर गई,’यू आर सो क्लैवर !’
उसने मेरे घुटने पकड़ लिए। मैं खिसक नहीं सकती थी। नीचे कील में ठुकी हुई थी।
मेरी योनि और केला उसके सामने परोसे हुए थे। नेहा उन पर झुक गई।

‘ओह…’ न चाहते हुए भी मेरी साँस निकल गई। नेहा के होठों और जीभ का मुलायम, गीला, गुलगुला… गुदगुदाता स्पर्श। होंठों और उनके बीच केले को चूमना चूसना… वह जीभ के अग्रभाग से उपर के दाने और खुले माँस को कुरेद कुरेदकर जगा रही थी। गुदगुदी लग रही थी और पूरे बदन में सिहरनें दौड़ रही थीं। गुदा में घुसे लिंग की तड़तड़ाहट,योनि में केले का कसाव, ऊपर नेहा की जीभ की रगड़… दर्द और उत्तेजना का गाढ़ा घोल…
मेरा एक हाथ नेहा के सिर पर चला गया। दूसरा हाथ बिस्तर पर टिका था, संतुलन बनाने के लिए।
सुरेश ने लिंग को किंचित बाहर खींचा और पुन: मेरे अन्दर धक्का दिया। नेहा को पुकारा- अब तुम खींचो…’
नेहा के होंठ मेरी पूरी योनि को अपने घेरे में लेते हुए जमकर बैठ गए। उसने जोर से चूसा। मेरे अन्दर से केला सरका…

एक टुकड़ा उसके दाँतों से कटकर होंठों पर आ गया। पतले लिसलिसे द्रव में लिपटा। नेहा ने उसे मुँह के अन्दर खींच लिया और ‘उमऽऽऽ, कितना स्वादिष्ट है !’ करती हुई चबाकर खा गई।
मैं देखती रह गई, कैसी गंदी लड़की है !

मेरे सिर के नीचे सुरेश के जोर से हँसने की आवाज आई। उसने उत्साठहित होकर गुदा में दो धक्के और जड़ दिये।
नेहा पुन: चूसकर एक स्लाइस निकाली।
सुरेश पुकारा,’मुझे दो।’
पर नेहा ने उसे मेरे मुँह में डाल दिया- लो, तुम चखो।’

वही मुसाई-सी गंध मिली केले की मिठास। बुरा नहीं लगा। अब समझ में आया क्यों लड़के योनि को इतना रस लेकर चाटते चूसते हैं। अब तक मुझे यह सोचकर ही कितना गंदा लगता था पर इस समय वह स्वाभाविक, बल्कि करने लायक लगा। मैं उसे चबाकर निगल गई।

नेहा ने मेरा कंधा थपथपाया,’गुड… स्वादिष्ट है ना?’
वह फिर मुझ पर झुक गई। कम से कम आधा केला अभी अन्दर ही था।
‘खट खट खट’… दरवाजे पर दस्तक हुई।

कहानी जारी रहेगी।
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