दूसरी सुहागरात-3

(Dusari Suhagraat- Part 3)

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प्रेम गुरु की कलम से……

सम्पादन सहयोगिनी : स्लिम सीमा

प्रेम तो बाथरूम चला गया और मैंने फिर से कम्बल ओढ़ लिया।

कोई 5-7 मिनट के बाद प्रेम बाथरूम से आकर फिर से मेरे साथ कम्बल में घुसने लगा तो मैंने उसे कहा “प्रेम प्लीज़ तुम दूसरा कम्बल ओढ़ लो और हाँ… वो दूध पी लेना … !”

आज पता नहीं प्रेम क्यों आज्ञाकारी बच्चे की तरह झट से मान गया नहीं तो वो मुझे अपनी बाहों में भर लेने से कभी नहीं चूकता। मैं फिर कम्बल लपेटे ही बाथरूम में चली आई। मैंने अपनी लाडो और महारानी को गर्म पानी और साबुन से एक बार फिर से धोया और उन पर सुगंधित क्रीम लगा ली। महारानी के अन्दर भी एक बार फिर से बोरोलीन क्रीम ठीक से लगा ली।

मैंने जानबूझ कर बाथरूम में कोई 10 मिनट लगाए थे। इन मर्दों को अगर सारी चीज़ें सर्व सुलभ करवा दी जाएँ तो ये उनका मूल्य ही नहीं आँकते (कद्र ना करना)।

थोड़ा-थोड़ा तरसा कर और हौले-हौले दिया जाए तो उसके लिए आतुर और लालयित रहते हैं।

मेरे से अधिक यह सब टोटके भला कौन जानता होगा।

मैंने अपने आपको शीशे में देखा। आज तो मेरी आँखों में एक विशेष चमक थी। मैंने शीशे में ही अपनी छवि की ओर आँख मार दी।

जब मैं कमरे में वापस आई तो देखा प्रेम कम्बल में घुसा टेलीफ़ोन पर किसी से बात करने में लगा था। पहले तो वो हाँ हूँ करता रहा मुझे कुछ समझ ही नहीं आया पर बाद में जब उसने कहा,”ओह…. यार सबकी किस्मत तुम्हारे जैसी नहीं हो सकती !”

तब मुझे समझ आया कि यह तो जीत से बात कर रहा था। ओह… यह जीत ज़रूर उसे पट्टी पढ़ा रहा होगा कि मधुर को किसी तरह राज़ी करके या फिर ज़बरदस्ती पीछे से भी ठोक दे।मुझे आता देख कर प्रेम ने ‘ठीक है’ कहते हुए फ़ोन काट दिया।

“कौन था?” मुझे पता तो था पर मैंने जानबूझ कर पूछा।

“ओह. वो. जीत का फ़ोन था …जन्म दिन की बधाई दे रहा था।” उसने एक लंबी साँस भरते हुए कहा।

“हम्म…”

“मधुर…?” शायद वो आज कुछ कहना चाहता था पर हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था “वो…। वो देखो मैंने तुम्हें कितना सुंदर गिफ्ट दिया है और तुमने तो मुझे कुछ भी नहीं दिया?”

“मैंने तो अपना सब कुछ तुम्हें दे दिया है मेरे साजन अब और क्या चाहिए ?” मैंने मुस्कुराते हुए कहा।

मैं पलंग पर बैठ गई तो प्रेम भी झट से मेरे कम्बल में ही आ घुसा,”ओह… मधुर … वो . चलो छोड़ो… कोई बात नहीं !”

“प्रेम मैं भी कई दिनों से तुम्हें एक अनुपम और बहुत खूबसूरत भेंट देना तो चाहती थी !”

“क…। क्या ?” उसने मुझे अपनी बाहों में कसते हुए पूछा।

“ऐसे नहीं ! तुम्हें अपनी आँखें बंद करनी होगी !”

“प्लीज़ बताओ ना ? क्या देना चाहती हो?”

“ना… बाबा… पहले तुम अपनी आँखें बंद करो ! यह भेंट खुली आँखों से नहीं देखी जा सकती !”

“अच्छा लो भाई मैं आँखें बंद कर लेता हूँ !”

“ना ऐसे नहीं….! क्या पता तुम बीच में अपनी आँखें खोल लो तो फिर उस भेंट का मज़ा ही किरकिरा हो जाएगा ना?”

“तो?”

“तुम अपनी आँखों पर पट्टी बाँध लो, फिर मैं वो भेंट तुम्हें दे सकती हूँ !” मैंने रहस्यमयी ढंग से मुस्कुराते हुए कहा।

प्रेम की तो कुछ समझ ही नहीं आया,”ओके… पर पट्टी बाँधने के बाद मैं उसे देखूँगा कैसे?”

“मेरे भोले साजन वो देखने वाली भेंट नहीं है ! बस अब तुम चुपचाप अपनी आँखों पर यह दुपट्टा बाँध लो, बाकी सब मेरे ऊपर छोड़ दो।”

फिर मैंने उसकी आँखों पर कस कर अपना दुपट्टा बाँध दिया। अब मैंने उसे चित्त लेट जाने को कहा। प्रेम चित्त लेट गया। अब मैंने उनके पप्पू को अपने हाथों में पकड़ लिया और मसलने लगी। प्रेम के तो कुछ समझ ही नहीं आया। वो बिना कुछ बोले चुपचाप लेटा रहा।

मैंने पप्पू को मुँह में लेकर चूसना चालू कर दिया। वो तो ठुमके ही लगाने लगा था। मैंने कोई 2-3 मिनट उसे चूसा और अपने थूक से उसे पूरा गीला कर दिया। अब मैंने अपनी दोनों जांघें उसकी कमर के दोनों ओर करके उसके ऊपर आ गई। फिर उकड़ू होकर पप्पू को अपनी लाडो की फांकों पर पहले तो थोड़ा घिसा और फिर उसका शिश्णमुण्ड महारानी के छेद पर लगा लिया।

मेरे लिए ये क्षण कितने संवेदनशील थे, मैं ही जानती हूँ।

प्रेम का दिल ज़ोर ज़ोर से धड़क रहा तह और उसकी साँसें बहुत तेज़ हो चली थी।

मैंने एक हाथ से पप्पू को पकड़े रखा और फिर अपनी आँखें बंद करके धीरे से अपने नितम्बों को नीचे किया। पप्पू हालाँकि लोहे की छड़ की तरह कड़ा था फिर भी थोड़ा सा टेढ़ा सा होने लगा। मैंने पप्पू को अपनी मुट्ठी में कस कर पकड़ लिया ताकि वो फिसल ना जाए। मैं आज किसी प्रकार का कोई लोचा नहीं होने देना चाहती थी। मैं इस अनमोल एवम् बहु-प्रतीक्षित भेंट को देने में ज़रा भी चूक या ग़लती नहीं करना चाहती थी। मैं तो इस भेंट और इन लम्हों को यादगार बनाना चाहती थी ताकि बाद में हम इन पलों को याद करके हर रात रोमांचित होते रहें।

एक बार तो मुझे लगा कि यह अन्दर नहीं जा सकेगा पर मैंने मन में पक्का निश्चय कर रख था। मैंने एक बार फिर से अपने नितम्बों को थोड़ा सा ऊपर उठाया और फिर से सही निशाना लगा कर नीचे की ओर ज़ोर लगाया। इस बार मुझे लगा मेरी महारानी के मुँह पर जैसे मिर्ची सी लग गई है या कई चींटियों ने एक साथ काट लिया है। मैंने थोड़ा सा ज़ोर ओर लगाया तो छेद चौड़ा होने लगा और सुपारा अन्दर सरकने लगा।

मुझे दर्द महसूस हो रहा था पर मैंने साँसें रोक ली थी और अपने दाँत ज़ोर से भींच रखे थे। प्रेम की एक हल्की सीत्कार निकल गई। शायद वो इतनी देर से दम साधे पड़ा था। उसने मेरी कमर पकड़ ली। उसे डर था इस मौके पर शायद में दर्द के मारे उसके ऊपर से हट कर उसका काम खराब ना कर दूँ।

पर मैं तो आज पूर्ण समर्पिता बनने का पूरा निश्चय कर ही चुकी थी। मैंने अपनी साँसें रोक कर एक धक्का नीचे के ओर लगा ही दिया। मुझे लगा जैसे कोई गर्म लोहे की सलाख मेरी महारानी के अन्दर तक चली गई है।

“ईईईईईईईईईईई ईई ईईईईई….” मैंने बहुत कोशिश की पर ना चाहते हुए भी मेरे मुँह से चीत्कार निकल ही गई। मैं बेबस सी हुई उसके ऊपर बैठी रह गई। किसी कुशल शिकारी के तीर की तरह पप्पू पूरा का पूरा अन्दर चला गया था। मुझे तो लगा यह मेरे पेट तक आ गया है।

प्रेम को तो जैसे विश्वास ही नहीं हो रहा था कि मैं स्वयं ऐसा करूँगी। उसने एक हाथ से मेरी कमर पकड़ी रखी और दूसरे हाथ से मेरी महारानी के छेद को टटोलने लगा कि कहीं यह सब उसका भ्रम तो नहीं है?

कुछ क्षणों तक मैं इसी तरह बैठी रही। अब उसने अपने एक हाथ से महारानी और पप्पू की स्थिति देखने के लिए अपनी अँगुलियाँ महारानी के चौड़े हुए छेद के चारों ओर फिराई। उसे अब जाकर तसल्ली और विश्वास हुआ था कि यह सपना नहीं, सच है।

फिर उसने दोनों हाथों से मेरी कमर कस कर पकड़ ली।

मुझे बहुत दर्द महसूस हो रहा था और मेरी आँखों से आँसू भी निकल पड़े थे। मैं जानती हूँ यह सब दर्द के नहीं बल्कि एक अनोखी खुशी के कारण थे। आज मैं प्रेम की पूर्ण समर्पिता बन गई हूँ यह सोच कर ही मेरे अधरों पर मुस्कान और गालों पर आँसू थिरक पड़े। मैंने अपना सिर प्रेम की छाती से लगा दिया।

“मेरी जान… मेरी सिमरन… मेरी स्वर्ण नैना… उम्म्मह…” प्रेम ने मेरे सिर को अपने हाथों में पकड़ते हुए मेरे अधरों को चूम लिया।

“मधुर… इस अनुपम भेंट के लिए तुम्हारा बहुत बहुत धन्यवाद… ओह. मेरी स्वर्ण नैना आज तुमने जो समर्पण किया है, मैं सारी जिंदगी उसे नहीं भूल पाऊँगा…! इस भेंट को पाकर मैं आज इस दुनिया का सबसे भाग्यशाली इंसान बन गया हूँ।”

“मेरे प्रेम… मैं तो सदा से ही तुम्हारी पूर्ण समर्पिता थी !”

“मधुर, ज़्यादा दर्द तो नहीं हो रहा?”

“ओह… प्लीज़ थोड़ी देर ऐसे ही लेटे रहो… हिलो मत… आ…!”

“मधुर… आई लॉव यू !” कहते हुए उसका एक हाथ मेरे सिर पर और दूसरा हाथ मेरे नितम्बों पर फिरने लगा। हालाँकि मुझे अभी भी थोड़ा दर्द तो हो रहा था पर उसके चेहरे पर आई खुशी की झलक, संतोष, गहरी साँसें और धड़कता दिल इस बात के साक्षी थे कि यह सब पाकर उसे कितनी अनमोल खुशी मिली है। मेरे लिए यह कितना संतोषप्रद था कोई कैसे जान सकता है।

“प्रेम… अब तो तुम खुश हो ना ?”

“ओह.. मेरी सिमरन… ओह… स्वर्ण नैना… आज मैं कितना खुशनसीब हूँ तुम्हें इस प्रकार पाकर मैं पूर्ण पुरुष बन गया हूँ। आज तो तुमने पूर्ण समर्पिता बन कर मुझे उपकृत ही कर दिया है। मैं तो अब पूरी जिंदगी और अगले सातों जन्मों तक तुम्हारे इस समर्पण के लिए आभारी रहूँगा !” कह कर उसने मुझे एक बार फिर से चूम लिया।

“मेरे प्रेम… मेरे… मीत… मेरे साजन….” कहते हुए मैंने भी उनके होंठों को चूम लिया। आज मेरे मन में कितना बड़ा संतोष था कि आख़िर एक लंबी प्रतीक्षा, हिचक, लाज़ और डर के बाद मैंने उनका बरसों से संजोया ख्वाब पूरा कर दिया है।

प्रेम ने एक बार फिर से मेरे नितम्बों के बीच अपनी अँगुलियाँ फिरानी चालू कर दी। वो तो बार बार महारानी के छल्ले पर ही अँगुलियाँ फिरा रहा था। एक बार तो उसने अपनी अँगुलियाँ अपने होंठों पर भी लगा कर चूम ली। मेरे मन में तो आया कह दूँ,”हटो परे ! गंदे कहीं के !” पर अब मैं ऐसा कैसे बोल सकती थी।

मैंने भी अपना हाथ उस पर लगा कर देखा- हे भगवान… उनका “वो” तो कम से कम 5 इंच तो ज़रूर अन्दर ही धंसा था। छल्ला किसी विक्स की डब्बी के ढक्कन जितना चौड़ा लग रहा था। मैं देख तो नहीं सकती थी पर मेरा अनुमान था कि वो ज़रूर लाल रंग का होगा। मुझे आश्चर्य हो रहा था कि इतना मोटा अन्दर कैसे चला गया।

भाभी सच कहती थी इसमें मानसिक रूप से तैयार होना बहुत ज़रूरी है। अगर मन से इसके लिए स्त्री तैयार है तो भले ही कितना भी मोटा और लंबा क्यों ना हो आराम से अन्दर चला जाएगा।

प्रेम आँखें बंद किए मेरे उरोज़ों को चूसने लगा था। अब मुझे दर्द तो नहीं हो रहा था बस थोड़ी सी चुनमुनाहट अभी भी हो रही थी।

एक बात तो मैंने भी महसूस की थी। जब कभी कोई मच्छर या चींटी काट लेती है तो उस जगह को बार बार खुजलाने में बहुत मज़ा आता है। प्रेम जब उस छल्ले पर अपनी अंगुली फिराता तो मुझे बहुत अच्छा लगता। अब मैंने अपना सिर और कमर थोड़ी सी ऊपर उठाई और फिर से अपने नितम्बों को नीचे किया तो एक अज़ीब सी चुनमुनाहट मेरी महारानी के छल्ले पर महसूस हुई। मैंने 2-3

बार उसका संकोचन भी किया। हर बार मुझे लगा मेरी चुनमुनाहट और रोमांच बढ़ता ही जा रहा है जो मुझे बार बार ऐसा करने पर विवश कर रहा है। मीठी मीठी जलन, पीड़ा, कसक और गुदगुदी भरी मिठास का आनन्द तो अपने शिखर पर था।

अब तो प्रेम ने भी अपने नितम्ब कुछ उचकाने शुरू कर दिए थे।

मैंने अपने नितम्बों को थोड़ा ऊपर नीचे करते हुए महारानी का एक दो बार फिर संकोचन किया। प्रेम का लिंग तो अन्दर जैसे ठुमके ही लगाने लगा था। मुज़ेः भी उस संकोचन से गुदगुदी और रोमांच दोनों हो रहे थे। अब मैंने अपने नितम्बों को थोड़ा ऊपर नीचे करना शुरू कर दिया। आ… यह आनन्द तो इतना अनूठा था कि मैं शब्दों में नहीं बता सकती। ओह… अब मुझे समझ आया कि मैं तो इतने दिन बेकार ही डर रही थी और इस आनन्द से अपने आप को वंचित किए थी। जैसे ही मैं अपने नितम्ब ऊपर करती प्रेम का हाथ मेरी कमर से कस जाता। उसे डर था कि कहीं उसका पप्पू बाहर ना निकल जाए और फिर जब मैं अपने नितम्ब नीचे करती तो मेरे साथ उसकी भी सीत्कार निकल जाती। वो कभी मेरी जांघों पर हाथ फिराता, कभी नितम्बों पर। एक दो बार तो उसने मेरी लाडो को भी छेड़ने की कोशिश की पर मुझे तो इस समय कुछ और सूझ ही नहीं रहा था।

“आ… मेरी जान… आज तो तुमने मुझे…अया… निहाल ही कर दिया मेरी रानी… मेरी स्वर्ण नैना आ…”

“ओह… प्रेम… आ…” मेरे मुँह से भी बस यही निकल रहा था।

“मधुर एक बार मुझे ऊपर आ जाने दो ना ?”

“ओके..” मैं उठने को हुई तो प्रेम ने कस कर मेरी कमर पकड़ ली।

“ओह ऐसे नहीं …प्लीज़ रूको… ”

“तो?”

“तुम ऐसा करो धीरे धीरे अपना एक पैर उठा कर मेरे पैरों की ओर घूम जाओ। फिर मैं तुम्हारी कमर पकड़ कर पीछे आ जाऊँगा।”

मेरी हँसी निकल गई। अब मुझे समझ आया प्रेम अपने पप्पू को किसी भी कीमत पर बाहर नहीं निकलने देना चाहता था।

फिर मैं प्रेम के कहे अनुसार हो गई। हालाँकि थोड़ा कष्ट तो हुआ और लगा कि यह बाहर निकल जाएगा पर प्रेम ने कस कर मेरी कमर पकड़े रखी और अब वो मेरे पीछे आ गया। मैं अपने घुटनों के बल हो गई और वो भी अपने घुटनो के बल होकर मेरे पीछे चिपक गया। अब उसने मेरी कमर पकड़ ली और धीरे धीरे अपने पप्पू को थोड़ा सा बाहर निकाला और फिर अन्दर सरकाया। पप्पू तो अब ऐसे अन्दर-बाहर होने लगा जैसे लाडो में जाता है। मुझे बड़ा आश्चर्य हो रहा था कि इस घर्षण के साथ मेरी लाडो और महारानोई के छल्ले के आस पास बहुत ही आनन्द की अनुभूति होने लगी थी। ओह… यह तो निराला ही सुख था।

भाभी ने मुझे बताया था कि योनि और गुदा की आस पास की जगह बहुत ही संवेदन शील होती है इसीलिए गुदा मैथुन में भी कई बार योनि की तरह बहुत आनन्द महसूस होता है।

प्रेम ने मेरे नितम्बों पर थपकी लगानी शुरू कर दी। मैं तो चाह रही थी आज वो इन पर ज़ोर ज़ोर से थप्पड़ भी लगा दे तो मुझे बहुत अच्छा लगेगा। अब वो थोड़ा सा मेरी कमर पर झुका और उसने अपना एक हाथ नीचे कर के मेरे चूचों को पकड़ लिया, दूसरे हाथ से मेरी लाडो के दाने और कलिकाओं को मसलने लगा।

लाडो तो पूरी प्रेमरस में भीगी थी। उसने एक अंगुली अन्दर-बाहर करनी चालू कर दी। मैं तो इस दोहरे आनन्द में डूबी बस सीत्कार ही करती रही।

स्त्री और पुरुषों के स्वभाव में कितना बड़ा अंतर होता है, मैंने आज महसूस किया था। पुरुष एक ही क्रिया से बहुत जल्दी ऊब जाता है और अपने प्रेम को अलग अलग रूप में प्रदर्शित करना और भोगना चाहता है। पर स्त्री अपनी हर क्रिया और प्रेम को स्थाई और दीर्घायु बनाना चाहती है। इतने दिनों तक प्रेम इस महारानी के लिए मरा जा रहा था और आज जब इसका सुख और मज़ा ले लेते हुए भी वो लाडो को छेदने के आनन्द को भोगे बिना नहीं मान रहा है।

कुछ भी हो मेरा मन तो बस यही चाह रहा था कि काश यह समय का चक्र अभी रुक जाए और हम दोनों इसी तरह बाकी बची सारी जिंदगी इसी आनन्द को भोगते रहें।

“मधुर…आ… मेरी जान… अब… बस…आ…..”

मैं जानती थी अब वो घड़ियाँ आने वाली हैं जब इनका “वो” अपने प्रेम की अंतिम अभिव्यक्ति करने वाला है। मैं थोड़ी तक तो गई थी पर मन अभी नहीं भरा था। मैं उनके प्रेम रस की फुहार अन्दर ही लेना चाहती थी।

प्रेम ने 2-3 धक्के और लगाए और फिर मेरी कमर ज़ोर से पकड़ कर अपने लिंग को जड़ तक अन्दर डाल दिया और मेरे नितम्बों से चिपक कर हाँफने लगा। मैंने अपने घुटने ज़ोर से जमा लिए। इन अंतिम क्षणों में मैं उसका पूरा साथ देना चाहती थी।

“यआआआआआअ……. ईईईईईईईईई…. मेरी जान… माधुर्र्रर….। आ……” उसके मुँह से आनन्द भारी सीत्कार निकल पड़ी और उसके साथ ही मुझे लगा उनका पप्पू अन्दर फूलने और पिचकने लगा है और मेरी महारानी किसी गर्म रस से भरती जा रही है।

अब प्रेम ने धक्के लगाने तो बंद कर दिए पर मेरी कमर पकड़े नितम्बों से चिपका ही रहा। मेरे पैर भी अब थरथराने लगे थे। मैंने अपने पैर थोड़े पीछे किए और अपने पेट के बाल लेट गई। प्रेम मेरे ऊपर ही आ गिरा।

अब उसने अपने हाथ नीचे करके मेरे स्तनों को पकड़ लिया और मेरी कंधे गर्दन और पीठ पर चुंबन लेने लगा। मैं तो उनके इस बरसते प्रेम को देख कर निहाल ही हो उठी। मुझे लगा मैंने एक बार फिर से अपना ‘मधुर प्रेम मिलन’ ही कर लिया है।

मैंने अपनी जांघें फैला दी थी। थोड़ी देर बाद पप्पू फिसल कर बाहर आ गया तो मेरी महारानी के अन्दर से गाढ़ा चिपचिपा प्रेम रस भी बाहर आने लगा। मुझे गुदगुदी सी होने लगी थी और अब तो प्रेम का भार भी अपने ऊपर महसूस होने लगा था।

‘ईईईईईईईईईई……………..” मेरे मुँह से निकल ही पड़ा।

जान ! मैंने अपने नितम्ब मचकाए।

तो प्रेम मेरे ऊपर से उठ खड़ा हुआ। मैं भी उठ कर अपने नितम्बों और जांघों को साफ करना चाहती थी पर प्रेम ने मुझे रोक दिया। उसने तकिये के नीचे से फिर वही लाल रुमाल निकाला और उस रस को पौंछ दिया।

मैं तो सोचती थी वो इस रुमाल को नीचे फेंक देगा पर उसने तो उस रुमाल को अपने होंठों से लगा कर चूम लिया। और फिर मेरी ओर बढ़ कर मेरे होंठों और गालों को चूमने लगा। मेरे मुँह से आख़िर निकल ही गया,”हटो परे ! गंदे कहीं के !”

“मेरी जान, प्रेम में कुछ भी गंदा नहीं होता !” कह कर उसने मुझे फिर से बाहों में भर कर चूम लिया।

मैं अब बाथरूम जाना चाहती थी पर प्रेम ने कहा,”मधुर … आज की रात तो मैं तुम्हें एक क्षण के लिए भी अपने से डोर नहीं होने देना चाहता। आज तो तुमने मुझे वो खुशी और आनन्द दिया है जो अनमोल है। यह तो हमारे मधुर मिलन से भी अधिक आनन्ददायी और मधुर था।”

अब मैं उसे कैसे कहती,”हटो परे झूठे कहीं के !”

मैंने भी कस कर उन्हें अपनी बाहों में भर लिया……..

और फिर हम दोनों कम्बल तान कर नींद के आगोश में चले गए।

बस अब और क्या लिखूँ ? अब तो मैं अपने प्रेम की रानी नहीं महारानी बन गई हूँ !

-मधुर

दोस्तो ! आपको हमारी यह दूसरी सुहागरात कैसी लगी बताएँगे ना ?

आपका प्रेम गुरु

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दूसरी सुहागरात-3

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